


गोपाल झा.
सड़कें किसी भी राज्य की जीवनरेखा होती हैं। वे केवल कंक्रीट और डामर का ढांचा नहीं, बल्कि विकास की धमनियों के रूप में हमारे जीवन में बहती हैं। पर अफसोस, इन धमनियों को बार-बार चीरने का जो सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है, वह न केवल जनधन की बर्बादी है, बल्कि शासन-प्रशासन की समन्वयहीनता और उदासीनता का भी जीवंत प्रमाण है। एक विभाग बनाता है, दूसरा तोड़ता है, तीसरा उसमें खुदाई करता है, और यह सब बिना किसी पूर्व योजना, तालमेल या जवाबदेही के।
यह हालात सिर्फ किसी एक शहर की त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश, और बड़े फलक पर देखा जाए तो पूरे देश की एक स्थायी पीड़ा है। इन टूटी सड़कों पर जनता सिर्फ यात्रा नहीं करती, बल्कि वह अव्यवस्था, उपेक्षा और अनदेखी का बोझ भी ढोती है। सवाल यह है कि आखिर कब तक ऐसा चलता रहेगा? कब सड़कों को बार-बार ज़ख़्मी करने का यह सरकारी खेल रुकेगा?
सौभाग्य से अब जब खुद मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने इस गंभीर मुद्दे को गंभीरता से लिया है, तो उम्मीद की एक नई किरण दिखाई देती है। कहना गलत न होगा कि यह समस्या आज की नहीं, बरसों पुरानी है। बतौर पत्रकार हमने इस मसले पर कई दफा अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों को चेताया, लिखा, जनता ने भी विरोध किया, लेकिन नीतियों की नींद कभी नहीं खुली। विकास की हर परियोजना आधे-अधूरे मन से, अधूरी योजना से शुरू होती रही, और सड़कों पर उसका खामियाजा नज़र आता रहा।

नगर निकाय सड़क बनाते हैं, जनता में उम्मीद जगती है कि अब गड्ढों से मुक्ति मिलेगी। लेकिन कुछ ही दिनों में पीएचईडी पानी की पाइप लाइन बिछाने के नाम पर उस सड़क को खोदना शुरू कर देता है। फिर बिजली विभाग आकर उसे और छिन्न-भिन्न कर देता है। सीवरेज की खुदाई तो जैसे सड़क की अंतिम सांसें छीन लेती है। और फिर वहीं होती है लीपापोती, बजट खर्च दिखाने की मरम्मत, जो अगली बरसात में धुल जाती है।
यह दृश्य सिर्फ हनुमानगढ, श्रीगंगानगर, बीकानेर, जयपुर या जोधपुर का नहीं, यह तस्वीर पूरे राजस्थान की है। बल्कि कहें तो पूरे देश की है। जो विकास जनता को राहत देने के लिए करवाया जाता है, वह उल्टा पीड़ा का कारण बन जाता है। दरअसल, यह केवल प्रशासनिक लापरवाही नहीं, यह व्यवस्था की अदृश्य संवेदनहीनता है, जिसमें जनता केवल ‘झेलने’ के लिए होती है।
मुख्यमंत्री का इस मुद्दे को उठाना स्वागत योग्य है। जब शीर्ष नेतृत्व संवेदना दिखाता है, तो यथास्थिति में परिवर्तन की संभावना पैदा होती है। लेकिन बात केवल कहने या समझने भर की नहीं है, यह समय है नीति निर्माण का, व्यावहारिक समाधान का और दृढ़ इच्छाशक्ति का। अब वक्त आ गया है जब नगर परिषद, पीडब्ल्यूडी, पीएचईडी, बिजली विभाग और सीवरेज एजेंसियों के बीच एक साझा मंच तैयार किया जाए, एक साझा कैलेंडर, एक संयुक्त कार्य योजना, ताकि एक ही सड़क बार-बार न टूटे।
राज्य या देश भर के जिला कलेक्टरों की भूमिका यहां निर्णायक हो सकती है। वे जिलों में इन विभागों के कामों को एक रूपरेखा में ढालें। आगामी दो-चार वर्षों की संभावित परियोजनाओं की रूपरेखा पहले ही साझा की जाए, ताकि सामूहिक निर्णय लिए जा सकें। तकनीक के इस युग में एक साझा डिजिटल पोर्टल भी विकसित किया जा सकता है, जहां सभी निर्माण गतिविधियां अपडेट हों और कोई भी महकमा कोई कार्य बिना जानकारी के शुरू न कर सके।

इसके साथ ही, जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही भी अहम है। अक्सर यह देखा गया है कि विधायक या पार्षद अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए बिना पूर्ण योजना के कार्य शुरू करवा देते हैं। यह प्रवृत्ति भी नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। उन्हें यह समझना होगा कि असमय विकास कार्य ‘विकास’ नहीं, ‘विनाश’ है।
जनता को भी अब खामोश नहीं रहना चाहिए। विरोध का स्वर सशब्द और सुसंगठित होना चाहिए। विरोध केवल नारों तक सीमित न हो, अपितु सुझावों के साथ हो। मीडिया की भूमिका इस मोर्चे पर बेहद अहम है, न केवल समस्याएं दिखाने, बल्कि समाधान का मार्ग सुझाने में भी।

इस पूरे संदर्भ में मुख्यमंत्री की यह पहल एक जरूरी हस्तक्षेप है। यदि वे इस मुद्दे को केवल प्रशासनिक टिप्पणी तक सीमित न रखकर एक मिशन के रूप में लें, तो राजस्थान को एक नई कार्यसंस्कृति का मार्ग मिल सकता है। यह कार्य आसान नहीं होगा, लेकिन यदि नेतृत्व दृढ़ हो, तो परिणाम निश्चित है।
सियासत में संवेदना और प्रशासन में जब समन्वय का मेल होता है, तब सड़कें सिर्फ गड्ढों से नहीं, अफसरशाही की सोच से भी मुक्त होती हैं। हमें इसी दिशा में उम्मीद बनाए रखनी चाहिए, कि शायद अब कोई सड़क बिना वजह न टूटे, और जो बनी है, वह चलने के काबिल भी रहे।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं
