



भटनेर पोस्ट पॉलिटिकल डेस्क.
राजस्थान की आबोहवा में ठण्डक है लेकिन सियासी तापमान लगातार बढ़ रहा है। पंचायती राज और शहरी निकाय चुनाव अगले साल होने ही हैं। चाहे सरकार चाहे या न चाहे, ये चुनाव टाले नहीं जा सकते। पर असली सवाल यह है कि दो साल में भजनलाल सरकार जनता का भरोसा हासिल क्यों नहीं कर सकी? इसका जवाब हालिया उपचुनावों और लोकसभा नतीजों में छुपा है, जहां बीजेपी को अप्रत्याशित पराजय का सामना करना पड़ा। यह हार सरकार की कार्यशैली और जनता से दूरी का साफ संकेत मानी जा रही है।

बीजेपी आलाकमान भी अब समझ चुका है कि मामला न तो सिर्फ विपक्ष का है और न ही सरकार के प्रदर्शन का। बड़ा कारण घरेलू कलह है। संगठन और सरकार के बीच समन्वय की कमी किसी भी सफल शासन मॉडल की कमर तोड़ देती है। शायद यही कारण है कि ब्यूरोक्रेसी में भारी फेरबदल कर नया संगठन तैयार किया गया है। अब बारी मंत्रिमंडल पर है। प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ की नई संगठनात्मक टीम घोषित होते ही संकेत और साफ हो गए कि अगला झटका कुछ मंत्रियों को लग सकता है।

प्रदेश में इस समय मंत्रिमंडल विस्तार की चर्चाएँ चरम पर हैं। छह मंत्री पद खाली हैं और कई चेहरों पर खतरा मंडरा रहा है। यह साफ माना जा रहा है कि सरकार अपनी दूसरी वर्षगांठ से पहले कैबिनेट को नया आकार देगी। इसी बीच मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा का दिल्ली दौरा पूरे राज्य में राजनीतिक भूचाल ले आया है। दिल्ली का मंथन अक्सर कुर्सियों के भविष्य का फैसला करता है, और इस बार भी यही होने की अटकलें तेज हैं।

कुल मिलाकर हालात यह बता रहे हैं कि भजनलाल सरकार अब ‘कोर्स करेक्शन मोड’ में है। जनता का भरोसा खोने का जोखिम 2028 के मिशन से बहुत भारी पड़ सकता है। इसलिए सरकार खुद को रीसेट करने में लगी है, ताकि आगामी चुनावों में पार्टी मजबूत होकर मैदान में उतर सके। अब पूरी नजर दिल्ली से आने वाले संकेत पर है। जब भी इशारा मिलेगा, जयपुर में कई कुर्सियों की किस्मत तय हो जाएगी। राजनीति में मौसम बदलते देर नहीं लगती, और राजस्थान का सियासी मौसम तो इन दिनों वैसे भी तूफानी चल रहा है।

उपमुख्यमंत्री प्रेमचंद बैरवा भले कह रहे हों कि यह फैसला पूरी तरह सीएम का अधिकार है, पर अंदर की हलचल कुछ और ही कहानी कह रही है। सूत्रों का दावा है कि सरकार ने बड़े बदलाव के लिए पूरा होमवर्क तैयार कर लिया है। निजी एजेंसियों से मंत्रियों के कामकाज, जनता से जुड़ाव, क्षेत्रीय प्रभाव और एंटी-इंकंबेंसी की रिपोर्ट मंगवाई गई है। जिनके रिपोर्ट कार्ड में कमियां हैं, वे अपनी कुर्सी की चिंता में पड़े हैं। कुछ नामों पर तो विवादों की मोटी परत भी चढ़ी हुई है।

संगठन में दो दावेदार विधायकों को जगह मिलने के बाद अब यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या कुलदीप धनखड़ और कैलाश वर्मा को प्रवक्ता पद से आगे कुछ मिलेगा या यहीं रुक जाना पड़ेगा। लेकिन एक बात तय है, अब किसी मंत्री को हटाकर संगठन में भेजने की गुंजाइश लगभग खत्म हो चुकी है, क्योंकि राठौड़ की टीम पहले ही घोषित हो गई है। इसका मतलब है कि जिन पर गाज गिरेगी, वे सीधे बाहर का रास्ता देखेंगे।

सूत्रों का कहना है कि आधा दर्जन मंत्रियों पर सीएम की नाराज़गी साफ है। जिनकी फाइलें तेज़ नहीं चलीं, जिनका जनता से जुड़ाव कमजोर रहा या जिन पर विवादों की छाया रही, उनके लिए अगली सुबह भारी हो सकती है। दूसरी तरफ कुछ मंत्रियों को प्रमोशन की भी चर्चा है, खासकर वे जिनका काम ठोस माना गया है और जिनकी छवि जनता में साफ है।

इस राजनीतिक शतरंज में नए चेहरों के लिए भी दरवाजे खुल सकते हैं। वसुंधरा राजे सरकार में मंत्री रहे कुछ वरिष्ठ विधायक इस बार फिर दावेदार बताए जा रहे हैं। पुष्पेंद्र सिंह राणावत और श्रीचंद कृपलानी के नाम चर्चा में हैं। झुंझुनूं से भी एक चेहरे के शामिल होने की संभावना बताई जा रही है। वहीं जातीय समीकरण संतुलित करने के लिए एक जाट, एक सिख और एक यादव नेता को कैबिनेट में जगह देने की चर्चाएँ भी जोर पकड़ रही हैं। सिक्ख में सादुलशहर विधायक गुरवीर सिंह बराड़ के नाम की चर्चा है। गुर्जर समुदाय से मंत्री जवाहर बेढम के प्रमोशन की अटकलें भी चल रही हैं। राजस्थान की राजनीति में जातीय संतुलन हमेशा अहम रहा है, और सरकार इस पहलू से कोई जोखिम लेने के मूड में नहीं लगती।


