





डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारतीय लोकतंत्र की संरचना दो मजबूत स्तंभों पर टिकी हुई है, जनप्रतिनिधि और प्रशासनिक अधिकारी। एक ओर चुने हुए राजनेता होते हैं, जो आमजन की आकांक्षाओं के वाहक होते हैं, तो दूसरी ओर ब्यूरोक्रेसी होती है, जो प्रशासनिक दक्षता और दीर्घकालिक नीति निर्माण की आधारशिला रखती है। विशेषकर राजस्थान जैसे राज्य में, जहां भौगोलिक विषमताएं, सामाजिक विविधता और आर्थिक असंतुलन एक साथ मौजूद हैं, वहां इन दोनों दृष्टिकोणों का टकराव और समन्वय राज्य की नीतिगत दिशा और आर्थिक मजबूती का निर्धारण करता है। यह आलेख इन्हीं दो ध्रुवों, राजनीति और ब्यूरोक्रेसी के दृष्टिकोण, संघर्ष, योगदान और संभावित समाधान की विवेचना करता है।
राजनेता लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं, जिनकी प्राथमिक जिम्मेदारी जनता की उम्मीदों और अपेक्षाओं को नीति में बदलना होता है। आमतौर पर उनका दृष्टिकोण अल्पकालिक लाभ, त्वरित जनसमर्थन और चुनावी समीकरणों से प्रेरित होता है। मसलन, किसानों के लिए ऋण माफी योजनाएं, बिजली दरों पर सब्सिडी, सामाजिक सुरक्षा पेंशन और मुफ्त शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं की घोषणाएं। ये कदम जनता को राहत तो पहुंचाते हैं, लेकिन इनका वित्तीय बोझ राज्य के राजकोष पर भारी पड़ता है। कभी-कभी यह आर्थिक नीति की स्थिरता को खतरे में भी डाल सकता है।

ब्यूरोक्रेसी का दृष्टिकोणः तकनीकी दक्षता और दीर्घकालिक संतुलन
प्रशासनिक सेवा के अधिकारी नीतियों के क्रियान्वयन और दीर्घकालिक प्रभावों पर केंद्रित रहते हैं। इनकी प्राथमिकताएं होती हैं, राजकोषीय अनुशासन, संस्थागत मजबूती, डेटा आधारित नीति निर्माण, सतत विकास की दिशा में योजनाएं। राजस्थान में कई वरिष्ठ अफसरों ने जल संरक्षण, ई-गवर्नेंस, स्कीम मॉनिटरिंग और ग्राम-स्तरीय योजनाओं में उल्लेखनीय नवाचार किए हैं। लेकिन इनकी सोच में भावनात्मक जुड़ाव कम होता है, जिससे ये निर्णय कभी-कभी आमजन से कटा हुआ लगता है।
टकरावः कारण और परिणाम
दोनों पक्षों के दृष्टिकोण में मौलिक भिन्नता होने के कारण अक्सर नीति निर्माण के स्तर पर टकराव देखने को मिलता है। उदाहरणस्वरूप-कोई योजना यदि राजकोषीय घाटे को बढ़ाती है, तो अफसर उसे अस्वीकृत कर देते हैं वहीं, जनभावनाओं और वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर राजनेता उस योजना को लागू करने के लिए दबाव बनाते हैं राजस्थान में प्रमुख उदाहरण, जल परियोजनाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में अफसरों की आपत्तियों के बावजूद विस्तार व राजनीतिक घोषणाएं जो अफसरों के लिए वित्तीय और तकनीकी रूप से असंभव होती हैं.

आर्थिक विशेषताएंः नीति निर्माण की विशिष्ट चुनौतियाँ
राजस्थान के संदर्भ में ये टकराव और भी जटिल हो जाते हैं क्योंकिः राज्य की बड़ी आबादी ग्रामीण है, कृषि पर निर्भरता बहुत अधिक है, जल संकट स्थायी समस्या है, औद्योगीकरण सीमित है। सामाजिक न्याय आधारित राजनीति का वर्चस्व है। इस स्थिति में राजनेताओं के लोकलुभावन फैसले और अफसरों की तकनीकी गणनाएं जब टकराती हैं, तो नीतिगत दिशा भटकने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
बदलते दौर में प्रयासः दोनों पक्षों की सक्रियता
हाल के वर्षों में दोनों पक्षों ने अपनी भूमिका को नए सांचे में ढालने का प्रयास किया है। राजनीतिक नेतृत्व ने “जन आशीर्वाद यात्रा”, “न्याय आपके द्वार” जैसे अभियानों से सीधा संवाद साधा। प्रशासनिक अमले ने डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम, ई-गवर्नेंस, जनकल्याण पोर्टल आदि से पारदर्शिता और दक्षता को बढ़ाया। इन प्रयासों के बावजूद जब तक दोनों पक्ष नीति निर्माण में साझी जिम्मेदारी नहीं निभाते, तब तक वास्तविक परिवर्तन संभव नहीं।

मुख्य समस्याएँः
ब्यूरोक्रेसी को सिर्फ आदेशपालक समझा जाना, जिससे उनकी नीतिगत भागीदारी सीमित हो जाती है।
राजनेताओं का अल्पकालिक नजरिया, जिससे दीर्घकालिक वित्तीय संकट गहराता है। नीति निर्माण में पारदर्शिता की कमी जिससे जनता के विश्वास में कमी आती है। राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक दृढ़ता का अभाव जिससे प्रभावी योजनाएं अटक जाती हैं।
नीतिगत समाधान और सुझावः
शेयर्ड गवर्नेंस मॉडल लागू किया जाए, नीति निर्माण में राजनेताओं और अफसरों की साझी भूमिका सुनिश्चित की जाए। राज्य स्तरीय स्थायी लोक नीति आयोग गठित किया जाए, जिसमें वरिष्ठ राजनेता, अनुभवी ब्यूरोक्रेट्स और स्वतंत्र विशेषज्ञ शामिल हों। आईएएस प्रशिक्षण में जनभावनाओं और राजनीतिक यथार्थ को समझने का पाठ जोड़ा जाए, जिससे ब्यूरोक्रेसी और जनता के बीच दूरी घटे। राजनेताओं को दीर्घकालिक सोच की ओर प्रेरित किया जाए, अल्पकालिक लोकप्रियता से ऊपर उठकर स्थायित्व पर केंद्रित निर्णय लिए जाएं। नीतिगत निर्णयों में पारदर्शिता, तथ्यात्मकता और जवाबदेही को अनिवार्य बनाया जाए। राजनीति और प्रशासन, दोनों लोकतंत्र के दो ऐसे पहिये हैं, जिनके बिना गवर्नेंस का रथ नहीं चल सकता। राजस्थान जैसे राज्य में, जहां सामाजिक अपेक्षाएं और आर्थिक संसाधनों की सीमाएं दोनों चरम पर हैं, वहां जनप्रतिनिधियों और अफसरों के बीच समन्वय ही स्थायी विकास की कुंजी है।
जनभावनाओं के प्रति संवेदनशीलता और प्रशासनिक दक्षता का संगम ही राजस्थान को आर्थिक रूप से मजबूत, सामाजिक रूप से समावेशी और नीति रूप से दूरदर्शी राज्य बना सकता है। लोकतंत्र की सफलता तभी है जब निर्णय न केवल भावनाओं से प्रेरित हों, बल्कि तकनीकी और वित्तीय विवेक से संतुलित भी हों।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं




