




गोपाल झा.
बिहार की राजनीति इस वक्त उसी मोड़ पर खड़ी है, जहां हर तरफ सवाल ही सवाल हैं, और उनके जवाब सत्ता की गलियों में फुसफुसाहट बनकर घूम रहे हैं। आंकड़े कहते हैं कि नीतीश कुमार का कद बढ़ा है, लेकिन बीजेपी की ताकत अब पहली बार इतनी बड़ी दिख रही है कि वह नीतीश के सहारे के बिना भी सरकार बनाने का ‘हिसाब-किताब’ करने लगी है। राजनीति में समीकरण जब बदलते हैं, तो बदला हुआ माहौल पहले रुझानों में दिखता है, फिर बयानबाज़ी में, और अंत में सत्ता की सीढ़ियों पर। इस बार बिहार में कुछ वैसा ही होता दिख रहा है।

रुझानों ने यूपी-बिहार की राजनीति में वर्षों से चले आ रहे एक लिखित और अलिखित सत्य को चुनौती दी है। दोपहर 1 बजे तक एनडीए कुल 189 सीटों पर आगे चल रहा था। इसमें सबसे दिलचस्प पहेली बीजेपी की बढ़त है, 90 सीटों की। जेडीयू 79 पर आगे है, यानी नीतीश कुमार 2020 की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत स्थिति में हैं। लेकिन वहीँ, बीजेपी अपने दम पर खड़े होने की क्षमता भी पहली बार आंकड़ों में साफ दिखा रही है।

अब ज़रा उस ‘जोड़-गणित’ पर गौर कीजिए, जिसने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा रखी है। अगर एनडीए में जेडीयू को एक क्षण के लिए अलग रख दें, तो बीजेपी 90 सीटों के साथ चिराग पासवान की एलजेपीआर की 20 सीटें, जीतन राम मांझी की ‘हम’ की 4 सीटें, और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएम की 4 सीटें जोड़कर 118 का आंकड़ा छू लेती है। बहुमत के लिए ज़रूरत है 122 की, यानी सिर्फ 4 और सीटें।

और इन ‘चार सीटों’ की तलाश में बीजेपी को ज्यादा मशक्कत करनी पड़ेगी, ऐसा मानने वालों की संख्या कम है। बिहार का राजनीतिक इतिहास बताता है कि जोड़-तोड़ की कला बीजेपी के लिए नई नहीं है। कांग्रेस के 5, लेफ्ट के 6 और बसपा के 1 विधायक मिलाकर सरकार बनाने की संभावनाओं को हवा दी जा रही है। राज्यपाल भी बीजेपी के पक्ष से है, यह तथ्य भी सियासी रणनीतियों के हिसाब से एक बड़ी आरामदायक कुर्सी जैसा है, जिस पर बैठकर बीजेपी नए गणित का अभ्यास कर सकती है।

मामला यहीं दिलचस्प नहीं होता; दिलचस्पी बढ़ती है उस राजनीतिक विडंबना में जो नीतीश कुमार से जुड़ी है। अगर वे एनडीए छोड़ते हैं, तो भाजपा को रोकने के लिए विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश उनमें होगी, लेकिन यह भी साफ है कि बीजेपी तब कांग्रेस और दूसरे दलों को तोड़कर भी सरकार बना सकती है। यानी स्थिति कुछ ऐसी है, नीतीश जाएं, तब भी बीजेपी मजबूत; नीतीश रहें, तब भी बीजेपी मजबूत।

यह ताकत कहां से आई? कई विशेषज्ञ मानते हैं कि एनडीए में सीट बंटवारे के समय से ही बीजेपी ने अपने अंदरूनी एजेंडे को टेबल के नीचे सजा रखा था। पार्टी ने इस चुनाव में खुद को सबसे बड़ी पार्टी बनाने की योजना पहले ही तैयार कर ली थी। आज के नतीजे सिर्फ उस रणनीति की पुष्टि करते दिख रहे हैं। नीतीश कुमार के लिए यह सीन दोधारी तलवार जैसा है। एक तरफ वे 2020 की तुलना में ज्यादा सीटें लेते दिखाई दे रहे हैं, दूसरी तरफ बीजेपी पहली बार सीएम पद पर दावा करने की स्थिति में पहुँचती दिख रही है।

अब अमित शाह के पुराने और हालिया बयानों को याद करिए। जून 2025 में शाह ने कहा था, ‘सीएम कौन होगा, वक्त तय करेगा।’ उसका मतलब उसी वक्त राजनीतिक जानकारों ने समझ लिया था कि बीजेपी ने पर्यायवाची शब्दों में भविष्य की एक खिड़की खोल दी है। अक्टूबर में शाह ने कहा कि चुनाव बाद सहयोगी मिलकर नेता चुनेंगे। फिर विवाद बढ़ा तो नवंबर में सफाई दी, ‘नीतीश ही मुख्यमंत्री हैं, और रहेंगे।’

बयान तीन, संदेश एक। बीजेपी अपनी चाल हमेशा बंद मुट्ठी में रखती है। जो भी हो, बिहार की राजनीति एक नए मोड़ पर खड़ी है। बीजेपी के पास मौका है कि वह पहली बार राज्य में अपना मुख्यमंत्री बनाए। उसके सामने ‘सिर्फ आठ-दस विधायकों का जुगाड़’ जैसा मामूली सा काम है, जो पार्टी पहले भी कई बार कर चुकी है। और अगर वह यह रास्ता नहीं चुनती, तो इसका मतलब सिर्फ यह होगा कि गठबंधन की नैतिकता और पुराना समीकरण अभी उसे कुछ देर और रोक रहा है। बिहार का अगला फैसला विधानसभा से पहले राजनीतिक मनोविज्ञान तय करेगा, और मनोविज्ञान में बीजेपी इस वक्त सबसे मजबूती से खड़ी पार्टी दिख रही है।




