



गोपाल झा
बिहार की सियासत एक बार फिर जोश और जुनून के दौर में है। चुनाव की रणभेरी बज चुकी है, और अब पूरा परिदृश्य उम्मीदवारों के चयन पर टिक गया है। हर पार्टी के आलाकमान को यह भलीभांति पता है कि गलत प्रत्याशी का चयन चुनावी परिणाम को पूरी तरह पलट सकता है। इसीलिए सबकी निगाहें उम्मीदवारों की सूची पर टिकी हैं।

भारतीय जनता पार्टी इस बार एक नया दांव खेलने की तैयारी में है, लोकप्रियता के सहारे सत्ता की राह आसान करने का। यही कारण है कि पार्टी भोजपुरी और मैथिली के कलाकारों को अपने साथ जोड़ने की रणनीति बना रही है। पवन सिंह, विनय बिहारी, राधेश्याम रसिया, मैथिली ठाकुर और कुंजबिहारी मिश्रा जैसे नाम चर्चा में हैं। हालांकि, मैथिली ठाकुर के खिलाफ सोशल मीडिया पर चल रहे अभियान ने पार्टी को सावधानी बरतने पर मजबूर किया है।

बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण जितना असर डालते हैं, उतना ही प्रभावशाली होता है प्रत्याशियों का चेहरा और जनस्वीकृति। अब तक हुए सर्वेक्षणों के मुताबिक, जनता मौजूदा विधायकों से खासी नाराज है, चाहे वे एनडीए से हों या महागठबंधन से। यह संकेत स्पष्ट है कि मतदाता इस बार ‘चेहरा’ और ‘काम’ दोनों को तौलकर ही मतदान करेगा। इसलिए पार्टियों के सामने चुनौती है कि कम से कम 30 फीसद मौजूदा विधायकों के टिकट काटे जाएं ताकि नई ऊर्जा और विश्वास का संदेश दिया जा सके।

एनडीए की स्थिति फिलहाल कुछ जटिल है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि पहले जैसी चमकदार नहीं रही। उनके विवादित बयान, उलझे भाषण और लंबे शासनकाल ने जनता में एक तरह की ऊब पैदा कर दी है। बीजेपी, जो अब तक नीतीश के सहारे चलती आई है, अब महसूस कर रही है कि उसने इतने वर्षों में कोई वैकल्पिक लोकप्रिय चेहरा तैयार नहीं किया। नीतीश की थकान और जनता की नाराजगी, एनडीए के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकती है।

फिर भी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रणनीतिक चाल चली है। बिहार की 1.21 करोड़ महिलाओं के खातों में 10,000 भेजने की घोषणा ने महिला वोट बैंक को साधने का प्रयास किया है। साथ ही 5 किलो मुफ्त अनाज की योजना का प्रभाव भी रहेगा। दूसरी ओर, नीतीश सरकार ने भी अपने स्तर पर कई लोकलुभावन घोषणाएं की हैं, 125 यूनिट मुफ्त बिजली, सामाजिक सुरक्षा पेंशन को 400 से बढ़ाकर 1100 करना और बेरोजगार युवाओं को 1000 मासिक भत्ता देना। इन योजनाओं का चुनावी असर निश्चित रूप से दिखेगा, लेकिन यह प्रभाव कितना निर्णायक होगा, कहना कठिन है।

विपक्ष की बात करें तो आरजेडी और महागठबंधन पूरी ताकत से मैदान में हैं। तेजस्वी यादव की सभाओं में उमड़ती भीड़ विपक्ष के उत्साह को पंख दे रही है। हालांकि, ‘जंगलराज’ और ‘चारा घोटाले’ जैसे पुराने आरोप अब भी पार्टी के पीछे चल रहे हैं। इसके बावजूद, आरजेडी की युवा और मुखर महिला प्रवक्ताएं, प्रियंका भारती और कंचना यादव पार्टी के लिए नया चेहरा और ऊर्जा लेकर आई हैं। लालू यादव ने अपने छोटे बेटे तेजस्वी को पूरी कमान सौंप दी है, जबकि बड़े बेटे तेजप्रताप यादव की नई पार्टी को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा।

वहीं, प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने इस बार चुनावी माहौल में नई हलचल मचा दी है। उनका ध्यान पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दों पर है, जो सीधे युवाओं की नब्ज पर चोट करते हैं। युवाओं का एक बड़ा वर्ग इस नैरेटिव से जुड़ता दिख रहा है।

फिलहाल एनडीए के लिए मुश्किलें कम नहीं हैं। नीतीश सरकार के कई मंत्री सम्राट चौधरी, अशोक चौधरी, मंगल पांडेय, दिलीप जायसवाल और संजय जायसवाल, भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं। अगर चुनाव प्रचार में ये मुद्दे केंद्र में रहे, तो एनडीए को पसीना आना तय है।

दूसरी ओर, महागठबंधन जनता के असंतोष को पूंजी में बदलने की कोशिश कर रहा है। विपक्ष का नारा ‘वोट चोर, गद्दी छोड़’ जनमानस में तेजी से फैल रहा है। हालांकि अंतिम परिणाम अब भी कई अनिश्चितताओं में घिरा है, क्योंकि बिहार की राजनीति में जाति, धर्म और स्थानीय समीकरणों की भूमिका निर्णायक रहती है।

कुल मिलाकर, इस बार का चुनाव ‘चेहरे बनाम समीकरण’ और ‘नीतियों बनाम नाराजगी’ की जंग साबित होने जा रहा है। और जब तक प्रत्याशियों की अंतिम सूची जारी नहीं होती, तब तक कोई भी अनुमान महज अटकल भर है। इतना तय है, इस बार भी बिहार का मतदाता ही असली ‘िकंगमेकर’ होगा, और तटस्थ वोट ही सत्ता की चाबी तय करेंगे।


