




डॉ. संतोष राजपुरोहित.
स्वदेशी ज्ञान परंपरा किसी भी समाज की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पहचान का अभिन्न अंग होती है। यह पारंपरिक ज्ञान और अनुभवों का एक ऐसा संगठित रूप है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता आया है। भारत जैसे विकासशील देश में स्वदेशी ज्ञान न केवल समाज की स्थिरता बनाए रखने में सहायक है, बल्कि यह आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। आज के वैश्विक परिदृश्य में, जब टिकाऊ और समावेशी विकास की आवश्यकता बढ़ रही है, तब स्वदेशी ज्ञान और आर्थिक विकास के बीच संबंधों को पुनः समझना आवश्यक हो गया है।
दरअसल, स्वदेशी ज्ञान परंपरा वह ज्ञान प्रणाली है जो किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र और समुदाय की पारंपरिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों, कृषि, चिकित्सा, कारीगरी और जल संरक्षण जैसी पद्धतियों पर आधारित होती है। यह स्थानीय पर्यावरण और उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप होता है। यह ज्ञान मौखिक रूप से या व्यावहारिक अनुभवों के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता है। यह प्राकृतिक संसाधनों के संतुलित उपयोग को प्राथमिकता देता है, जिससे सतत विकास संभव होता है। यह समाज की सामूहिक सहभागिता पर आधारित होता है और समावेशी विकास को बढ़ावा देता है। आर्थिक विकास का अर्थ केवल औद्योगीकरण या आय में वृद्धि से नहीं है, बल्कि यह एक समग्र प्रक्रिया है, जिसमें निम्नलिखित घटक शामिल होते हैं। आय और उत्पादन में वृद्धि, सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, कृषि से औद्योगिक और सेवा क्षेत्र में बदलाव, शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर का उन्नयन, पर्यावरणीय संसाधनों का संतुलित उपयोग व आर्थिक संसाधनों का समुचित वितरण। स्वदेशी ज्ञान प्रणाली आर्थिक विकास की इन सभी आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक हो सकती है।
स्वदेशी ज्ञान विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक विकास को बढ़ावा देता है। इसके कई पहलू हैं। मसलन, पारंपरिक कृषि प्रणालियाँ, जैसे मिश्रित फसल प्रणाली, प्राकृतिक जैविक खाद और जल संरक्षण तकनीकें कृषि उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होती हैं। भारत में ‘जीरो बजट नैचुरल फार्मिंग’ जैसी पारंपरिक कृषि तकनीकें आर्थिक विकास को टिकाऊ बनाती हैं। भारत में स्वदेशी कारीगरी जैसे खादी, मधुबनी पेंटिंग, वाराणसी की बनारसी साड़ी, राजस्थान का ब्लू पॉटरी उद्योग आदि ग्रामीण रोजगार को बढ़ावा देते हैं। स्वदेशी हस्तशिल्प उद्योग आत्मनिर्भर भारत अभियान का एक महत्वपूर्ण स्तंभ बन सकता है। भारतीय चिकित्सा पद्धतियाँ, जैसे आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और प्राकृतिक चिकित्सा, वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय हो रही हैं। योग और आयुर्वेदिक औषधियों का निर्यात भारतीय अर्थव्यवस्था को सशक्त बना रहा है।
स्वदेशी जल संरक्षण प्रणालियाँ जैसे राजस्थान में ‘बावड़ी’ और ‘जोहड़’, महाराष्ट्र में ‘पाट प्रणाली’, उत्तराखंड में ‘नौला-धारा’ आदि जल संकट को दूर करने में सहायक हैं। यह टिकाऊ जल आपूर्ति सुनिश्चित कर कृषि और उद्योगों को मजबूत बनाती हैं। पारंपरिक ज्ञान पर आधारित सांस्कृतिक पर्यटन भारत में रोजगार और राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। योग, आयुर्वेद, पारंपरिक कला और संगीत पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देते हैं। स्वदेशी ज्ञान पारंपरिक निर्माण और भवन निर्माण में भी उपयोगी है। उदाहरण के लिए, मिट्टी के घर, बांस की संरचनाएँ और जलवायु-अनुकूल वास्तुकला ऊर्जा की बचत में सहायक होती हैं। जैविक खेती और पारंपरिक वन प्रबंधन कार्बन उत्सर्जन को कम करने में सहायक होते हैं।
चुनौतियाँ और समाधान
हालाँकि स्वदेशी ज्ञान आर्थिक विकास में योगदान कर सकता है, लेकिन इसके सामने कई चुनौतियाँ भी हैं। स्वदेशी ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के साथ समन्वित करने की आवश्यकता है। पारंपरिक ज्ञान के संरक्षण के लिए पेटेंट और बौद्धिक संपदा अधिकार लागू किए जाने चाहिए। नई पीढ़ी पारंपरिक ज्ञान को कम महत्व दे रही है। इसे पुनर्जीवित करने के लिए शिक्षा में इसका समावेश आवश्यक है। सरकार को स्वदेशी ज्ञान आधारित उद्यमों के लिए नीतिगत समर्थन देना चाहिए। स्कूल और विश्वविद्यालयों में पारंपरिक ज्ञान को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए। हस्तशिल्प और कृषि आधारित स्टार्टअप्स को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान की जानी चाहिए। स्वदेशी ज्ञान को आधुनिक तकनीकों के साथ जोड़कर इसे और प्रभावी बनाया जा सकता है। सरकार और गैर-सरकारी संगठनों को लोगों को पारंपरिक ज्ञान की महत्ता के बारे में जागरूक करना चाहिए।
स्वदेशी ज्ञान परंपरा और आर्थिक विकास एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक तरीके से संरक्षित और विकसित किया जाए, तो यह सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक होगा। भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ संसाधनों की सीमित उपलब्धता है, स्वदेशी ज्ञान को आधुनिक आर्थिक मॉडल में समाहित करना आवश्यक हो गया है। सरकार, शोधकर्ता, और स्थानीय समुदायों के संयुक्त प्रयास से हम एक आत्मनिर्भर, समावेशी और सतत आर्थिक प्रणाली का निर्माण कर सकते हैं।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं


