


डॉ. संतोष राजपुरोहित.
शेयर बाजार को अक्सर ‘आर्थिक स्वास्थ्य का तापमापक’ कहा जाता है, परंतु यह मात्र संख्याओं का खेल नहीं, बल्कि सामूहिक विश्वास, मनोविज्ञान और भू-राजनीतिक घटनाओं की जटिल संरचना है। वर्ष 2025 की शुरुआत में भारतीय शेयर बाजार में आई 2200 अंकों की सेंसेक्स गिरावट और ₹15 लाख करोड़ की पूंजीगत क्षति एक साधारण परिघटना नहीं थी, बल्कि यह वैश्विक और घरेलू कारकों के संगम की विस्फोटक अभिव्यक्ति थी। 20वीं शताब्दी की औद्योगिक प्रतिस्पर्धा अब डिजिटल और तकनीकी वर्चस्व में बदल चुकी है। अमेरिका और चीन की इस लड़ाई में आयात शुल्क केवल व्यापारिक हथियार नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक संदेश बन चुके हैं। ट्रम्प सरकार की पुनरावृत्ति के साथ, तकनीकी कंपनियों पर शुल्क और सप्लाई चेन में विघटन ने वैश्विक अस्थिरता को पुनर्जीवित कर दिया।
ट्रंप इफेक्ट: ‘अमेरिका फर्स्ट’ की गूंज
पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की गिरफ्तारी, उसके पश्चात् फिर से चुनावी मैदान में उतरने की घोषणा और आक्रामक संरक्षणवादी घोषणाएँ। इन सबने निवेशकों की भावना को हिलाकर रख दिया। भारत जैसे उभरते बाजारों में ‘राजनीतिक अनिश्चितता प्रीमियम’ जुड़ गया, जिससे पूंजी का पलायन तेज हो गया। जैसे ही डॉलर इंडेक्स 105 के ऊपर पहुँचा, रुपया फिसल कर 85/डॉलर के पास आ गया। इसका सीधा असर आयात महंगाई, विदेशी कर्ज के मूल्य और बाजार में विदेशी निवेश के दृष्टिकोण पर पड़ा। यह अस्थिरता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक भी थी।

अंदरूनी कमजोरी ने बढ़ाया तनाव
तेल के भाव जब 100 डॉलर/बैरेल को पार कर गए, तो भारत की आयात-आधारित अर्थव्यवस्था पर दबाव और गहराया। बढ़ती मुद्रास्फीति ने नीतिगत कठिनाइयाँ बढ़ा दीं। एफआईआई द्वारा ₹24,000 करोड़ की बिकवाली केवल मुनाफावसूली नहीं, बल्कि संरचनात्मक चिंता की ओर इशारा करती है खासकर उच्च वैल्यूएशन, डॉलर स्ट्रेंथ और नीतिगत अनिश्चितताओं को देखते हुए।
कॉर्पाेरेट परिणामों में निराशा
जब प्रमुख कंपनियाँ अपने अनुमानों को नहीं छू पाईं, तो सेक्टर-विशिष्ट विक्रय शुरू हुआ, विशेषकर बैंकिंग, ऑटो और आईटी में। इससे मिडकैप और स्मॉलकैप स्टॉक्स में भारी गिरावट देखने को मिली। बैंकिंग सेक्टर में एनपीए की आहट और कुछ एनबीएफसीएस की नकदी संकट ने निवेशकों की हिम्मत को और कमज़ोर किया।

संपत्ति से लेकर संवेदना तक
₹15 लाख करोड़ की संपत्ति का एक दिन में नाश न केवल आर्थिक, बल्कि भावनात्मक झटका भी था, खासकर रिटेल निवेशकों के लिए। निवेशकों की जोखिम लेने की क्षमता में भारी गिरावट आई। कई प्रस्तावित आईपीओ स्थगित कर दिए गए, जिससे स्टार्टअप्स को पूंजी जुटाने में कठिनाई हुई। कॉर्पाेरेट सेक्टर की ऋण चुकाने की क्षमता पर प्रभाव पड़ा, जिससे एनपीए की पुनरावृत्ति की आशंका उत्पन्न हुई। शेयर बाजार के झटकों ने आमजन के विश्वास को भी प्रभावित किया। खर्च करने की प्रवृत्ति में गिरावट आने से खपत आधारित क्षेत्रों में मंदी आई।
नौकरियों पर असर
स्टार्टअप्स और कॉर्पाेरेट्स ने लागत कम करने के लिए हायरिंग फ्रीज़ और छंटनी का सहारा लिया। इससे शहरी बेरोजगारी दर में वृद्धि हुई। शहरी मांग में कमी से ग्रामीण उत्पादों की खपत घटी। इससे कृषि व उससे जुड़ी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। मार्केट कैप गिरने से पूंजीगत लाभ कर और विनिवेश के जरिए होने वाली आय में भारी कमी आई, जिससे राजकोषीय प्रबंधन पर दबाव बढ़ा।

अस्थिरता में स्थिरता की खोज
आरबीआई ने ब्याज दरों को स्थिर रखते हुए नकदी प्रवाह सुनिश्चित किया। साथ ही, बांड खरीद जैसे साधनों से तरलता बनाए रखी। सेबी और वित्त मंत्रालय ने मिलकर निवेशकों के लिए जागरूकता अभियान चलाए और कुछ कर रियायतों की भी घोषणा की। छोटे उद्योगों को पूंजी उपलब्ध कराने हेतु विशेष पैकेज और ब्याज सब्सिडी स्कीम शुरू की गई। सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर टैक्स में कटौती और सब्सिडी देकर तेल कीमतों के असर को सीमित करने का प्रयास किया।
निवेशकों की रणनीति: संकट में समझदारी
गिरावट के समय घबराने की जगह लॉन्ग टर्म पोजिशन बनाए रखना, यही सबसे बड़ी रणनीति है। अधिकतम रिटर्न के लिए न्यूनतम जोखिम की दिशा, यही विविधता का मंत्र है, गोल्ड, बॉन्ड, इक्विटी, म्यूचुअल फंड और रियल एस्टेट। सिप एक निवेशक का सबसे बड़ा हथियार है। यह अस्थिरता को साधता है और लॉन्ग टर्म रिटर्न को सुनिश्चित करता है। ‘पैनिक सेलिंग’ से हमेशा नुकसान होता है। सही रणनीति तथ्यों, डाटा और धैर्य पर आधारित होनी चाहिए।
आगे क्या ?
भारत की युवा जनसंख्या, उच्च डिजिटल अनुकूलता और स्टार्टअप क्रांति दीर्घकालिक रूप से बाजार को शक्ति प्रदान करेगी। इन योजनाओं के माध्यम से विनिर्माण, सेवाएँ और निर्यात तीनों क्षेत्रों में तेजी की उम्मीद की जा सकती है। रणनीति के तहत भारत एक प्रमुख विकल्प बनकर उभरा है। इससे आने वाले वर्षों में एफडीआई और एफआईआई में वृद्धि तय है।
संक्षेप में, हर आर्थिक झटका हमें याद दिलाता है कि बाजार केवल आंकड़ों का संग्रह नहीं, बल्कि भरोसे की अभिव्यक्ति है। वैश्विक भूचाल, नीति अस्थिरता और घरेलू चुनौतियों के बावजूद, भारत की दीर्घकालिक आर्थिक कहानी अभी भी भरोसेमंद और प्रेरक बनी हुई है। यही समय है जब संयम, विवेक और दीर्घदृष्टि को अपनाकर हम न केवल व्यक्तिगत निवेश की रक्षा कर सकते हैं, बल्कि भारत के आर्थिक पुनरुत्थान में भी सहभागी बन सकते हैं।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं


