



डॉ. संतोष राजपुरोहित.
भारत में सोना केवल एक धातु नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा, परंपरा और आर्थिक सुरक्षा का प्रतीक है। विशेष रूप से मध्यमवर्गीय परिवारों में इसका महत्व अत्यधिक है, जहाँ विवाह, त्योहार, और पारिवारिक संस्कारों में सोने का उपयोग एक अनिवार्य परंपरा बन गया है। किंतु हाल के वर्षों में सोने की लगातार बढ़ती कीमतें न केवल आमजन की पहुंच से इसे दूर कर रही हैं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी व्यापक प्रभाव डाल रही हैं।
भारत विश्व में सोने का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है। वर्ल्ड गोल्ड काउंसिल की रिपोर्ट (2024) के अनुसार, भारत में 2023 में कुल 747 टन सोने की खपत हुई, जिसमें से लगभग 55 फीसदी खपत केवल आभूषणों के रूप में हुई। शेष 45 फीसदी सोना सिक्कों, बिस्किटों, और निवेश के रूप में संग्रह किया गया।
मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए सोना विवाह में कन्यादान का प्रमुख अंग होता है। शादी के समय ‘कम से कम इतने तोला सोना’ देना एक सामाजिक दबाव बन गया है। यह केवल भावनात्मक या सांस्कृतिक कारणों से नहीं, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा और रिश्तेदारों में सम्मान से भी जुड़ा है।
सोना निवेश के पारंपरिक विकल्प के रूप में भी जाना जाता है, विशेषकर तब जब शेयर बाजार अस्थिर हो या महंगाई दर अधिक हो। ग्रामीण भारत में तो सोना नकद के विकल्प के रूप में इस्तेमाल होता है। कृषि ऋण के लिए गिरवी रखे जाने वाले सोने की संख्या में भी इज़ाफा देखा गया है।

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज और सेबी के अनुसार, वर्ष 2023 में डिजिटल गोल्ड और गोल्ड ईटीफ में भी लगभग 18,000 रुपए करोड़ का निवेश किया गया, जो यह दर्शाता है कि निवेशकों में भी इसका आकर्षण बना हुआ है। 2020 में जहां सोने की कीमत 40,000 रुपए प्रति 10 ग्राम थी, वहीं वर्तमान में यह यह लगभग एक लाख (लखटकिया) प्रति 10 ग्राम तक हो चुकी है। इस तेजी से वृद्धि के पीछे वैश्विक अनिश्चितता, डॉलर की मजबूती, भूराजनीतिक तनाव, और घरेलू माँग के कारक प्रमुख हैं।
इससे मध्यमवर्ग के लिए सोने की खरीद अब बोझ बनती जा रही है। कई परिवारों को अब अपनी बचत या ऋण के माध्यम से विवाहों में सोना खरीदना पड़ता है, जो उन्हें दीर्घकालिक ऋणचक्र में डाल देता है। भारत अपनी आवश्यकता का लगभग 85 फीसदी सोना आयात करता है, जिससे चालू खाता घाटा बढ़ता है। यदि घरेलू रीसाइक्लिंग और उत्खनन को बढ़ावा दिया जाए तो आयात निर्भरता कम की जा सकती है।
सरकार को गोल्ड बांड्स और डिजिटल गोल्ड को बढ़ावा देना चाहिए,खासकर निवेश उदेश्य के लिए तो,जिससे भौतिक सोने की मांग कम हो। ग्रामीण व शहरी मध्यम वर्ग को यह समझाने की आवश्यकता है कि विवाह जैसे अवसरों पर अत्यधिक मात्रा में सोना देना अब सामाजिक आवश्यकता नहीं, बल्कि आर्थिक बोझ है। सरकार गोल्ड पर आयात शुल्क और जीएसटी दरों में सामंजस्य बैठाकर बाजार में कीमतों को स्थिर बना सकती है।

भारतीय समाज में सोने को ‘शुभ’, ‘शुद्ध’ और ‘संपत्ति’ का प्रतीक माना जाता है। स्त्रियों के लिए सोना सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान भी है। परंपरागत मान्यता है कि ‘सोना संकट के समय काम आता है’, और यही कारण है कि अधिकांश परिवार अपनी आय का एक भाग सोने में सुरक्षित रखते हैं।
इसके अलावा, सोने की विरासत को पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपा जाता है, जिससे उसका भावनात्मक मूल्य भी बढ़ जाता है। विवाहों में इसे ‘मान’ से जोड़ा जाता है, और यही सोच मध्यमवर्गीय परिवारों में आर्थिक असंतुलन का कारण बनती है। भारतीय समाज में सोने का महत्व केवल आर्थिक नहीं, बल्कि गहराई से सामाजिक और सांस्कृतिक भी है। किंतु बदलते आर्थिक परिप्रेक्ष्य में इस परंपरा और आवश्यकता के बीच संतुलन बैठाना जरूरी है। सरकार को जहाँ आयात और कीमतों पर नियंत्रण हेतु रणनीति बनानी चाहिए, वहीं समाज को भी सोने के प्रति अंध भक्ति के स्थान पर विवेकशील दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यदि नीति और सामाजिक चेतना दोनों स्तरों पर परिवर्तन आए, तो आने वाले समय में भारत सोने के मोह को समझदारी और सशक्तिकरण के रास्ते पर बदल सकेगा।
-लेखक भारतीय आर्थिक परिषद के सदस्य हैं
