




बलजीत सिंह.
दर्शकों तक सच पहुंचाना हमेशा आसान काम नहीं होता। कैमरे के पीछे खड़ा आदमी भले ही शांत दिखे, लेकिन मैदान में खड़े पत्रकार के भीतर हर पल एक अनिश्चितता चलती रहती है। किस भीड़ से सामना होगा, कौन-सा पत्थर किस दिशा से आएगा, और कौन-सी आवाज़ इतिहास में दर्ज हो जाएगी। इन सबका कोई अंदाज़ा नहीं होता। और 10 दिसंबर का टिब्बी, मेरे लिए पत्रकारिता जीवन का ऐसा ही झंझावाती दिन बन गया।

हनुमानगढ़ जिला शांति का आदी रहा है। यहां आंदोलनों की परंपरा है, लेकिन आगज़नी और हिंसा की पहचान नहीं। प्रशासन और जनता के बीच भरोसे का धागा थोड़ा ढीला जरूर पड़ता है, टूटता नहीं। लेकिन उस दिन एथेनॉल प्लांट को लेकर गहराई तक पनपा असंतोष अचानक भड़क उठा। हम दोपहर 1 बजकर 56 मिनट पर महापंचायत स्थल पर पहुंचे। मेरे साथ थे पत्रकार साथी गुरदेव सैनी। उसी समय सांसद कुलदीप इंदौरा और जिलाध्यक्ष मनीष मक्कासर पहुंचे। मंच पर भाषण चल रहे थे, भीड़ में शोर था, और मौसम में बेचैनी।

नेटबंदी थी, लेकिन किसान संघर्ष समिति ने पत्रकारों के लिए वाई-फाई का इंतज़ाम कर दिया। इसी वजह से मेरा लाइव प्रसारण ‘पब्लिक प्लस राजस्थान’ पर बिना रुकावट चलता रहा। लगभग 3 बजकर 5 मिनट पर मंच से मंगेज चौधरी की आवाज़ गूंजी, काफी सख़्त, साफ़ और गुस्से में। उन्होंने कहा कि प्रशासन वार्ता में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा और अब कूच सीधे प्लांट की तरफ होगा। सबसे आगे वकील, फिर महिलाएं, फिर किसान। और चेतावनी, अगर प्रशासन ने रोकने की कोशिश की, तो जवाब मिलेगा।

बस, 3 बजकर 11 मिनट होते-न होते भीड़ चल पड़ी। शुरुआत घोषणा के मुताबिक थी, वकील आगे, महिलाएं पीछे। पर पुलिस के बैरिकेड टूटते गए और भीड़ का चेहरा बदलता गया। युवाओं का उफान सबसे आगे दिखने लगा। उनके नारों में गुस्सा साफ़ जल रहा था, ‘रात को हमारे नेताओं को उठाया, आज बदला लेंगे!’

हम भी उनके साथ आगे बढ़ रहे थे। बैरिकेड ऐसे टूट रहे थे जैसे लकड़ी के नहीं, कागज के बने हों। पुलिस असहाय खड़ी थी। थोड़ी ही देर में कुछ लोग वाहनों पर टूट पड़े, डीज़ल बहाया, आग लगाई। उठता धुआं और भगदड़ ऐसा माहौल खड़ा कर रही थी जो टिब्बी की मिट्टी ने पहले कभी नहीं देखा था। पुलिस पहले रक्षात्मक मुद्रा में रही, फिर अतिरिक्त बल आया और लाठियां, आंसू गैस और रबर बुलेटें हवा में गूंजने लगीं।

हम इस भगदड़ में अपना रास्ता बनाते हुए प्लांट परिसर तक पहुंचे। वहां नज़ारा और भयावह था। करीब 40-50 युवक अंदर घुस चुके थे। उनकी उम्र 25 साल से कम और चेहरों पर न किसानापन, न आंदोलनकारी वाली गंभीरता। उनकी हरकतें बता रही थीं कि उनका मकसद विरोध से ज्यादा उपद्रव था। कोई गाड़ियां तोड़ रहा था, कोई डीज़ल बहाकर आग लगाने में जुटा था। एक ने तो गैस सिलेंडर तक जला देने की कोशिश की। कुछ छत पर चढ़कर सोलर पैनल उखाड़-पकाड़ कर आग लगा बैठे।
इसी धुएं में मेरी नज़र कार्यालय भवन पर पड़ी। याद आया, तीन दिन पहले कवरेज के दौरान यहां कुछ कर्मचारी रहते हैं। मैंने तुरंत धन्नासर चौकी प्रभारी विजेंद्र शर्मा को बताया। वे कांस्टेबल ओमप्रकाश और अशोक के साथ भागते हुए ऊपर गए और सचमुच, पाँच लोग अंदर फंसे हुए मिले। उन्हें सुरक्षित निकाल लिया गया। तभी अचानक देखा, एक युवक छत पर फंसा हुआ है। धुआं उसे चारों तरफ से निगल रहा था। घबराहट में वह कूदना चाह रहा था, लेकिन ऊँचाई जानलेवा थी। मैंने पुलिस से कहा कि उसे भी बचाया जाए। कुछ जवान तेजी से ऊपर गए और उसे नीचे उतार लाए। उस पल समझ आया कि पत्रकार कभी-कभी सिर्फ कहानी नहीं लिखता, किसी की जान भी बचाता है।

कुछ देर बाद कलक्टर डॉ. खुशाल यादव और एडीएम उम्मेदीलाल मीणा भी मौके पर पहुंचे। माहौल देख वे भी सन्न थे। इधर पुलिस रबर बुलेट चला रही थी, उधर हमारी आंखों से लगातार पानी बह रहा था। आंसू गैस अपना काम कर रही थी। इस अफरातफरी में मैं अपना माइक ऊपर उठाकर लहरा रहा था, इस डर से कि कहीं पुलिस हमें भी भीड़ का हिस्सा न समझ ले। पत्रकार का डर भी बड़ा सीधा होता है, जान बचा ले, कैमरा बचा ले, और सच बचा ले। हालांकि हम एक मोबाइल तुड़वा बैठे। साथी गुरदेव सेनी का भी एक मोबाइल गिर गया।

अब महसूस हो रहा है कि पत्रकारिता सिर्फ पेशा नहीं, परीक्षा भी है। आग, धुआं, गोलियां, चीखें, इन सबके बीच खड़ा होकर आप सिर्फ खबर नहीं बताते, अपनी हिम्मत की हदें भी नापते हैं। टिब्बी का वह दिन मेरी यादों की दीवार पर हमेशा ताज़ा रहेगा, धुएं की गंध, भीड़ की बेचैनी, और सच को पकड़कर रखने की जिद के साथ।
-लेखक ‘पब्लिक प्लस’ के संपादक हैं




