



गोपाल झा.
देश में विचारों की गर्मी अक्सर राजनीति से उठती रही है, लेकिन जब यह आग प्रशासनिक व्यवस्था के भीतर से फूटे, तो चिंता स्वाभाविक है। मध्यप्रदेश में एक आईएएस अधिकारी संतोष कुमार वर्मा का बयान इसी किस्म की बेचैनी लेकर आया। उन्होंने आरक्षण को ‘बेटी के दान’ से जोड़कर न केवल ब्राह्मण समाज को अपमानित किया, बल्कि भारतीय सामाजिक ढांचे को भी ठेस पहुंचाई। किसी भी जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि शब्द केवल उच्चारण नहीं होते, वे सामाजिक भरोसे की नींव भी होते हैं। संतोष वर्मा का बयान इस भरोसे पर अविवेकपूर्ण चोट के समान है।

भारतीय समाज की परंपरा कहती है कि बेटी किसी एक जाति की नहीं होती; वह पूरे समाज की मान-मर्यादा का प्रतीक होती है। सदियों से गाँवों में रिश्ते जातिगत दायरों में जरूर बने, पर बेटी को हमेशा सम्मान का स्थान दिया गया। ऐसे में किसी भी लड़की के विवाह को जातिगत सौदेबाज़ी के रूप में दिखाना सामाजिक संवेदनशीलता पर आघात है। एक प्रशासनिक अधिकारी से अपेक्षा रहती है कि वह समाज में पुल का कार्य करे, न कि खाई और गहरी करे। इस बयान ने वही खाई चौड़ी की है।

ब्राह्मण समाज को लक्ष्य बनाकर कही गई ये बातें केवल एक टिप्पणी भर नहीं कहलाई जा सकतीं। इतिहास, संस्कृति और सामाजिक संतुलन में ब्राह्मणों की भूमिका को समझे बिना ऐसी धृष्टता समाज में दुर्भावना बढ़ाती है। यह भी सत्य है कि किसी भी समुदाय, ब्राह्मण हो या कोई और, के कुछ व्यक्तियों द्वारा की गई गलतियाँ पूरे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। फिर भी आज सोशल मीडिया पर तथाकथित विद्वानों और स्वघोषित सुधारकों द्वारा ब्राह्मणों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। मनुवाद, पाखंड या ढकोसले के नाम पर ब्राह्मण समुदाय पर सामूहिक आरोप लगाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसका सीधा संबंध सामाजिक ज्ञान से अधिक राजनीतिक स्वार्थ से दिखाई देता है।

सच्चाई यह है कि आतंक, अपराध, भ्रष्टाचार या सामाजिक कुरीतियाँ किसी एक जाति की निजी संपत्ति नहीं होतीं। हर समाज में अच्छाई और बुराई दोनों जन्म लेते हैं। ऐसे में केवल ब्राह्मणों को लक्ष्य बनाना संतुलन बिगाड़ने वाली कार्रवाई है। जब कोई आईएएस अधिकारी इस तरह का ‘जहर’ उगलता है, तो यह केवल उसकी व्यक्तिगत मूर्खता नहीं रहती, बल्कि उस पद की गरिमा पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है। यह साफ संकेत है कि वह संविधान, सामाजिक समरसता और प्रशासनिक उत्तरदायित्व की मूल भावना को समझने में विफल है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा से जुड़ा हर व्यक्ति संविधान की बुनियादी आत्मा, समानता, सम्मान और सौहार्द का संरक्षक माना जाता है। यदि कोई अधिकारी इन्हीं मूल सिद्धांतों पर प्रहार करे, तो फिर उसके पद पर बने रहने का औचित्य समाप्त हो जाता है। संतोष वर्मा का मामला केवल बयान से जुड़ा प्रकरण नहीं है; यह मानसिकता की समस्या है। ऐसी सोच न केवल समाज में नफ़रत फैलाती है बल्कि युवाओं और नागरिकों के मन में शासन के प्रति अविश्वास भी उत्पन्न करती है।

ज़रूरत इस बात की है कि समाज ऐसे बयानों के प्रति सजग रहे। जिन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ केवल दूसरों का अपमान समझ आता हो, उन्हें कानून उचित दिशा दिखाए। संविधान ने सभी को बोलने की स्वतंत्रता दी है, परंतु यह स्वतंत्रता किसी जाति की बेटी पर टिप्पणी करने की छूट नहीं देती। ऐसे बयानों पर शासन की चुप्पी कई बार स्थिति को विस्फोटक बना देती है। प्रशासनिक सेवा में बैठे लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि उनके शब्द कानून से अधिक असर रखते हैं, इसलिए उनमें संयम और विवेक होना अनिवार्य है।

संतोष वर्मा जैसे अधिकारी समाज के ताने-बाने में दरार डालते हैं। इन्हें पद से हटाना केवल दंड नहीं, बल्कि एक संदेश होगा, कि भारतीय समाज में जातिगत ज़हर फैलाने वालों के लिए कोई स्थान नहीं है। जब समाज और शासन दोनों मिलकर ऐसी मानसिकता के विरुद्ध खड़े होंगे, तभी सामाजिक समरसता की राह मजबूत होगी। आगे का रास्ता साफ है, संवैधानिक मूल्यों पर आचरण और जातिगत भेद की दीवारों को गिराने की निरंतर इच्छा ही देश को बेहतर दिशा दे सकती है।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं


