





शंकर सोनी.
भारत में सोशल मीडिया ने नागरिक अभिव्यक्ति को एक नया आयाम दिया था। यह वह माध्यम था, जहाँ आम जन की आवाज़ सत्ता तक पहुँच सकती थी, जहाँ विचारों का मुक्त प्रवाह हो सकता था। परंतु आज वही मंच विचार-विमर्श से अधिक विवाद-विस्तार का केंद्र बन गया है। सोशल मीडिया पर अब रचनात्मक संवाद की जगह आरोप-प्रत्यारोप ने ले ली है। किसी भी सामाजिक या राजनीतिक मुद्दे पर संतुलित चर्चा के बजाय, व्यक्ति और दल विशेष के प्रति घृणा प्रकट करना सामान्य बात बन चुकी है। हर पक्ष अपने विरोधी को नीचा दिखाने में लगा है, जबकि सत्य, तर्क और विवेक, इन तीनों की जगह भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ ले रही हैं।

डिजिटल प्लेटफॉर्म्स का गणित भी इस प्रवृत्ति को और हवा देता है। जो सामग्री विवाद और आक्रोश पैदा करती है, वही सबसे अधिक ‘वायरल’ होती है। यह एल्गोरिद्म नफरत को लाभदायक और संवाद को अप्रासंगिक बना देता है। इससे समाज में वैचारिक नहीं, बल्कि भावनात्मक ध्रुवीकरण गहराता जा रहा है, जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र सब सोशल मीडिया की बहसों में नई खाईयाँ बन रहे हैं।

विचारशील और सकारात्मक सोच रखने वाले उपयोगकर्ता अक्सर इन बहसों से दूर रहते हैं। वे जानते हैं कि तर्क की जगह यहाँ शोर का मूल्य अधिक है। परंतु यही मौन समाज के लिए सबसे खतरनाक है, क्योंकि इससे नकारात्मक सोच को और अधिक स्थान मिल जाता है। भारत जैसी युवा प्रधान सभ्यता में यह प्रवृत्ति मानसिक असंतुलन, असहिष्णुता और सामाजिक अविश्वास का कारण बन रही है।

अब समय आ गया है कि सोशल मीडिया के उपयोग में डिजिटल नैतिकता और संवाद संस्कृति को पुनः स्थापित किया जाए।
प्रत्येक उपयोगकर्ता को अपने शब्दों की जिम्मेदारी समझनी होगी। सरकार और कंपनियों को घृणास्पद सामग्री पर नियंत्रण के लिए तकनीकी और कानूनी उपायों को सशक्त बनाना होगा। विद्यालयों में ‘डिजिटल नैतिकता’ को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए, ताकि नई पीढ़ी सोशल मीडिया को जिम्मेदारी से उपयोग करना सीखे।

भारत का लोकतंत्र तभी सशक्त रहेगा जब उसमें असहमति भी सभ्यता के साथ व्यक्त की जा सके। सोशल मीडिया को यदि सच में जनता की आवाज़ का मंच बनाना है, तो इसे विवेक, विनम्रता और सत्य के मार्ग पर लौटाना होगा। द्वेष नहीं, संवाद ही समाधान है, यही भारत के डिजिटल युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है।
-लेखक नागरिक सुरक्षा मंच के संस्थापक और वरिष्ठ अधिवक्ता हैं



