






आर्किटेक्ट ओम बिश्नोई.
जब वह अपनी भेड़ों के झुंड के साथ दिन ढलने से ठीक पहले लौटता है, जोड़ायत के हाथों में थकान भरी हल्की मुस्कान लिए, उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति छाई होती है। उसके लिए यह दुनिया बेहद सरल है। सूरज उगता है, काम होता है, भेड़ों को बाड़े में बांधना है, और दिन ढलता है। बाकी सब जैसे अपने आप हो जाता है। वह जानता है कि पहले भेड़ों को सुरक्षित करना है। उसके छोटे-छोटे हाथों की मेहनत में हर कदम, हर छोर उसकी जिम्मेदारी का हिस्सा है।

जैसे ही वह बाड़े की लकड़ी की गली में भेड़ों को ले जाता है, जोड़ायत चूल्हे को तपा देती है। फिर फैल जाएगी घर में भीनी-भीनी खुशबू, ताजी रोटी की। यह खुशबू हर कोने में घुल जाएगी, उसके घर को भर देगी और दिन का लंबा सफर इसी सुखद अंत के साथ खत्म हो जाएगा। उसे केवल इतना पता है, खुश रहना, काम करना, अपने परिवार का ख्याल रखना।

उसके लिए दुनिया बहुत सरल है, और साथ ही जटिल। उसे यह नहीं मालूम कि जीडीपी, निवेश, रोजगार या भारी-भरकम नारे क्या होते हैं। उसे यह भी नहीं पता कि कौन लोग उसके बच्चों की पढ़ाई, उनके भविष्य और उनके हिस्से की शिक्षा पर नजर गढ़ाए हुए हैं। पूंजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद जैसे बड़े-बड़े शब्द उसके लिए किसी और ग्रह की भाषा हैं। उसके लिए यह सिर्फ शब्द हैं, जिनका असर उसके रोज़मर्रा के जीवन में कभी-कभी होता है। कभी रोटी महंगी हो जाती है, कभी फसल का दाम घट जाता है।

विकास की दौड़ में उसकी हिस्सेदारी इतनी जटिल है कि वह अभी तक यह समझ नहीं पाया कि उसके बुनियादी सवाल क्या हैं। रोटी से आगे उसके जीवन के सवाल हैं, उसके बच्चों की पढ़ाई, उनका भविष्य सुरक्षित है या नहीं, मौसम की मार से फसल बच पाई या नहीं। ये सवाल उसकी दुनिया हैं। ये ही उसकी प्राथमिकताएं हैं। बाकी बड़े-बड़े शब्द और नारे उसके लिए केवल खबरों में दिखाई देने वाले चमकदार पैमाने हैं।

उसे यह भी नहीं मालूम कि आज गांधी जी की जयंती है। उस महापुरुष की उन शिक्षाओं से उसका कोई व्यक्तिगत नाता नहीं है, जो उसने अपने जीवन में देखी हों। उसे यह भी नहीं पता कि किस राज्य में चुनाव हैं, और वहां राजनेता केवल धार्मिक नफ़रत के नारे ही उठा रहे हैं। उसकी राजनीति केवल इतना है कि कभी-कभी उसके काम का पैसा समय पर आता है या नहीं, फसल का दाम सही मिलता है या नहीं।

78 साल के लोकतंत्र में वह कहाँ खड़ा है, यह भी वह समझ नहीं पाता। विकास की दौड़ में उसकी भागीदारी इतनी सीमित है कि वह यह अंदाजा भी नहीं लगा पाता कि उसके हुक्मरानों के मुंह से निकले नारे वास्तव में किस दिशा में ले जा रहे हैं। नारे जिनमें मोहब्बत का कोई लेशमात्र भी नहीं, नारे जो सिर्फ ताकत और सत्ता की भाषा बोलते हैं। बेहतर यही है कि उसे इन सब बातों का पता न हो। बेहतर है कि उसकी दुनिया अभी भी अपने छोटे-छोटे सुख-दुख में सुरक्षित रहे। वह अपने बच्चों को देख सके, अपनी भेड़ों की सुरक्षा कर सके, अपने खेत की मिट्टी की खुशबू महसूस कर सके। उसे यह जानना जरूरी नहीं कि कुछ नारे एक पूरी पीढ़ी को नफरत का हथियार बनाने की तैयारी कर रहे हैं। उसकी प्राथमिकता अभी केवल अपने घर और अपने जीवन के सीधे सवाल हैं।

फिर भी, यह सच है कि उसकी सादगी और अनभिज्ञता इस दुनिया की बड़ी सच्चाइयों से अलग नहीं है। शायद यही असली चुनौती है, कि वह अपनी छोटी-छोटी खुशियों में संतुष्ट रहे, और वहीं से अपने जीवन की दिशा ढूंढे। शहरों में जो बड़े-बड़े नारे और शब्द हैं, वे केवल पर्दे हैं। पर्दों के पीछे सत्ता, लालच और नफरत की राजनीति चल रही है। लेकिन उसके घर में रोटी की खुशबू, भेड़ों की हल्की चोंच और जुड़ायत की मुस्कान से भरी सुबह, इन सब जटिलताओं से बिल्कुल अलग है।
शायद यही वजह है कि उसकी दुनिया अभी सुरक्षित है। उसे नहीं मालूम कि बाहर की दुनिया कितनी जटिल और भ्रामक है। लेकिन यह भी सच है कि उसके बच्चे उसी जटिल दुनिया में जीने और समझने के लिए बड़े होंगे। और अभी के लिए, उसकी दुनिया में रोटी, भेड़, घर और जुड़ायत की मुस्कान ही सबसे बड़ी सच्चाई है। इसलिए बेहतर यही है कि वह अनजान रहे। उसकी सादगी में ही असली मानवता की खुशबू है। और इस खुशबू के सहारे, दिन ढलते ही भेड़ें बाड़े में, रोटी ताजी, और जीवन फिर से अपने सरल, सहज, लेकिन अर्थपूर्ण सिलसिले में लौट आता है।
-लेखक पेशे से आर्किटेक्ट और दिल से ग्रामीण परिवेश को महसूस करने वाले दिलचस्प इंसान हैं

