






डॉ. एमपी शर्मा.
भारतीय संस्कृति में ब्राह्मण शब्द केवल जाति का नहीं, बल्कि ज्ञान, सेवा और साधना का प्रतीक रहा है। शास्त्रों ने स्पष्ट किया कि जन्म से नहीं, बल्कि संस्कार, वेदाध्ययन और ब्रह्मज्ञान से मनुष्य ब्राह्मण कहलाता है। प्राचीन काल में ब्राह्मण समाज के मार्गदर्शक और लोककल्याण के साधक थे, किंतु समय के साथ पाखंड, अहंकार और कर्मकांड की सीमाओं ने उनकी छवि धूमिल कर दी। आज आवश्यकता है कि ब्राह्मण पुनः अपने मूल धर्म, ज्ञान, सेवा और लोकमंगल को अपनाएँ। तभी ब्राह्मणत्व पुनः सम्मान और आदर्श का पर्याय बन पाएगा।

भारतीय संस्कृति में ब्राह्मण शब्द का विशेष महत्व रहा है। परंतु आज यह प्रश्न उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? जाति से जन्मा व्यक्ति या वे जो ब्राह्मणत्व के गुण और कार्य करते हैं? यह भी विचारणीय है कि कभी समाज में आदर्श और पूजनीय रहे ब्राह्मणों को आज आलोचना का सामना क्यों करना पड़ रहा है।

शास्त्रों ने स्पष्ट कहा है, ‘जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् भवेत् द्विजः, वेदपाठात् भवेत् विप्रः, ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः।’ अर्थात्, जन्म से हर मनुष्य शूद्र है। संस्कार से द्विज (दूसरा जन्म) होता है वेद-अध्ययन करने से विप्र कहलाता है। और जो ब्रह्म को जान ले, वही सच्चा ब्राह्मण है। इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मणत्व का आधार कर्म, ज्ञान और आचरण है, केवल जाति नहीं।

ब्राह्मणों का जीवन समाज-कल्याण के लिए समर्पित था। संस्कार और अनुष्ठान। जन्म से मृत्यु तक नामकरण, उपनयन, विवाह, गृहप्रवेश, श्राद्ध आदि। देवताओं और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, लोकमंगल के लिए हवन और प्रार्थना। वेद-शास्त्र, नीति, चिकित्सा, ज्योतिष, गणित व दर्शन की शिक्षा देना। समाज को सही दिशा दिखाना, आशीर्वाद से उत्साह और श्राप से चेतावनी। अधिकांश ब्राह्मण भिक्षा या न्यूनतम साधनों में रहकर अध्ययन और साधना करते थे।

समय के साथ परिस्थितियाँ बदलीं और कई कारणों से ब्राह्मणों की छवि धूमिल हुई। अहंकार और श्रेष्ठता का भाव। कुछ ब्राह्मणों ने अपने ज्ञान और पद को दूसरों से ऊँचा समझा। पाखंड और अंधविश्वास यानी कर्मकांड को ही धर्म मानकर शुद्ध आचरण और ज्ञान की उपेक्षा हुई। समाज ने भी ब्राह्मणों को केवल ‘पंडित जी संस्कार कराने वाले’ तक सीमित कर दिया। अंग्रेज़ों की शिक्षा पद्धति ने ब्राह्मणों की पारंपरिक भूमिका कमजोर की, पर आलोचना जारी रही। ब्राह्मण केवल समाज के लिए कर्म करते हैं, वे मांगते नहीं। भिक्षा पर जीवन-निर्वाह करने का अर्थ था कि वे समाज पर बोझ न बनें, बल्कि अपना समय अध्ययन और लोककल्याण में लगाएँ।

परंतु समाज ने भी ब्राह्मण को केवल कर्मकांड कराने वाला मानकर उसकी ज्ञान और नैतिक नेतृत्व की भूमिका को भुला दिया।
बड़ा सवाल है, क्या ब्राह्मण गौरव लौट सकता है? निश्चित ही लौट सकता है, परंतु इसका मार्ग आचरण और सेवा है, न कि जन्म का दंभ। केवल धार्मिक ग्रंथ ही नहीं, बल्कि विज्ञान, शिक्षा और समाजशास्त्र में भी आगे रहना। गरीब, बीमार और वंचितों की सेवा करना। ईमानदारी, संयम और सत्य का पालन करके दूसरों के लिए उदाहरण बनना। अंधविश्वास और संकीर्णता दूर कर लोगों में जागरूकता फैलाना।

आज ब्राह्मणत्व का अर्थ है, सत्य और न्याय का साथ देना। ज्ञान और शिक्षा का दीपक जलाना। आध्यात्मिकता और नैतिकता से समाज को दिशा देना। सेवा और करुणा से लोकमंगल करना।
ब्राह्मणत्व केवल जाति नहीं, बल्कि एक आदर्श जीवन पद्धति है। इतिहास गवाह है कि जब ब्राह्मण तप, त्याग और ज्ञान के मार्ग पर चलते हैं, तो समाज उन्हें पूजनीय मानता है। और जब वे अहंकार और पाखंड में उलझते हैं, तो आलोचना झेलते हैं।
अतः यदि ब्राह्मण पुनः अपने मूल धर्म, ज्ञान, साधना, सेवा और लोककल्याण को अपनाएँ, तो उनका गौरव निश्चय ही लौटेगा।
-लेखक सामाजिक चिंतक, सीनियर सर्जन और आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं



