


भटनेर पोस्ट पॉलिटिकल डेस्क.
लद्दाख, जो अब तक अपनी शांत, ठंडी वादियों और सामूहिक सौहार्द्र के लिए पहचाना जाता रहा है, बुधवार यानी 24 सितंबर को हिंसा की चपेट में आ गया। पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर शुरू हुआ आंदोलन अचानक आगजनी, पत्थरबाज़ी और पुलिस से टकराव में बदल गया। चार निर्दाेष जानें चली गईं और सत्तर से अधिक लोग घायल हो गए। यह घटना न केवल लद्दाख बल्कि पूरे देश के लिए चिंता का विषय है।

सबसे अहम सवाल यह है कि एक शांतिपूर्ण आंदोलन, जो सोनम वांगचुक जैसे अहिंसक व्यक्तित्व के नेतृत्व में चल रहा था, अचानक हिंसा की ओर क्यों मुड़ गया? क्या यह प्रशासनिक असंवेदनशीलता का नतीजा है, या फिर कुछ बाहरी तत्वों ने इसे भटकाने का काम किया?

राज्य का दर्जा बहाल करने का भरोसा 2019 में दिया गया था, जब अनुच्छेद 370 और 35(ए) हटाकर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। लेकिन पाँच साल बाद भी यह वादा अधूरा है। सवाल उठता है कि जब जनता की मांगें लंबे समय तक अनसुनी रह जाती हैं, तो क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में हिंसा ही अंतिम विकल्प बन जाती है?

देखा जाए तो इस आंदोलन ने तीन बड़े संदेश दिए हैं। पहला, सरकार का भरोसा और जनता का धैर्य। जब भरोसा टूटता है तो धैर्य भी जवाब दे देता है। दूसरा, युवाओं की भूमिका। शिक्षा और संवाद की शक्ति रखने वाली युवा पीढ़ी, भावनाओं के उबाल में हिंसा का रास्ता चुन बैठती है तो समाज का संतुलन बिगड़ता है। और आखिरी है, नेतृत्व की जिम्मेदारी। वांगचुक ने जिस क्षण अनशन तोड़ते हुए युवाओं को हिंसा से दूर रहने की अपील की, वह क्षण गांधीवादी मूल्यों की पुनः याद दिलाने वाला था।
लेकिन प्रशासन केवल प्रतिबंध लगाने और बल प्रयोग करने से हालात नहीं संभाल सकता। ज़रूरत है संवाद की, पारदर्शी रोडमैप की और जनता को विश्वास दिलाने की।

6 अक्टूबर को दिल्ली में होने वाली बैठक क्या इस अविश्वास की खाई को पाट सकेगी? या यह सिर्फ़ औपचारिकता भर रह जाएगी? यह आने वाला समय बताएगा। पर इतना स्पष्ट है कि लद्दाख अब केवल भूगोल का सवाल नहीं है, यह भारत की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और संवेदनशीलता की परीक्षा भी है।




