






डॉ. अर्चना गोदारा
नीला ड्रम, सोनम और राजा की दुखद कहानियों ने आज के युवाओं को गहराई से झकझोर दिया है। विवाह संस्था को लेकर पुरुष समाज में सवालों और भय का वातावरण बनने लगा है। यदि हम कुछ दशक पीछे देखें, तो दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा और जौहर प्रथा जैसे समाचार लगभग रोज़ अख़बारों की सुर्खियों में रहते थे। तब यह घटनाएँ हमें विचलित नहीं करती थीं। लेकिन जब हाल ही में पुरुषों के साथ घटित हिंसक घटनाएँ सामने आईं, तो समाज में आक्रोश और असुरक्षा की भावना तेजी से बढ़ने लगी। सवाल यह है कि प्रेम और विश्वास का रिश्ता हिंसा और हत्या में क्यों बदलता जा रहा है?

इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि यह भूमि जितनी महान परंपराओं की जन्मस्थली रही है, उतनी ही अमानवीय प्रथाओं की भी साक्षी रही है। सती प्रथा, दहेज हत्या, जौहर और भ्रूण हत्या जैसे अध्याय हमारी संस्कृति पर काले धब्बों की तरह अंकित हैं। इन्हें लंबे समय तक ‘संस्कृति’ का नाम देकर उचित ठहराया गया, जबकि वे दरअसल स्त्रियों पर हो रहे लगातार अन्याय और हिंसा की कहानियाँ थीं। सुधार आंदोलनों और शिक्षा ने इन कुप्रथाओं को तोड़ा, लेकिन उन्हें पूरी तरह समाप्त कर पाना आज भी चुनौती है।

वर्तमान परिदृश्य में हिंसा एक नए रूप में सामने आ रही है, पति-पत्नी के रिश्तों में अविश्वास और प्रतिशोध के रूप में। कभी पत्नी द्वारा पति की हत्या, तो कभी पति द्वारा पत्नी पर अत्याचार। नीला ड्रम और सोनम-राजा जैसी घटनाएँ यह स्पष्ट करती हैं कि अब हिंसा किसी एक लिंग तक सीमित नहीं रह गई है। यह विरोधाभास भी देखने को मिलता है कि जब सदियों तक महिलाएँ हिंसा झेलती रहीं, तब समाज ने उसे चुपचाप स्वीकार किया। लेकिन जब हिंसा की दिशा पुरुषों की ओर भी मुड़ी, तो आक्रोश और भय ने समाज को घेर लिया।

इसका अर्थ यह नहीं कि वर्तमान की हिंसा को उचित ठहराया जाए। हत्या और हिंसा का कोई भी रूप, चाहे वह स्त्री करे या पुरुष, उतना ही निंदनीय और शर्मनाक है। असली प्रश्न यह है कि क्या हमारा वर्तमान अतीत से वास्तव में बहुत अलग है?
भारतीय समाज की एक बड़ी विडंबना यह रही है कि विवाह में लड़कियों की पसंद को कभी महत्व नहीं दिया गया। उनकी शादी परिवार की इच्छा से तय होती रही। पहले के समय में वे बेमन से विवाह कर लेती थीं, लेकिन आज वे इसका विरोध करती हैं। यही विरोध कई बार हिंसा में बदलकर सामने आता है।

समय का संदेश साफ है, हमें केवल अतीत की गलतियों पर पछताना नहीं, बल्कि वर्तमान को सुधारना होगा। रिश्ते विश्वास, संवाद और सम्मान पर टिके होने चाहिए। वरना आने वाली पीढ़ियाँ हमें भी उतना ही कठघरे में खड़ा करेंगी, जितना हम अपने अतीत की प्रथाओं को करते हैं।

युवाओं की बेचैनी, धरनों की आवाज़ और समाज का आक्रोश हमें चेतावनी देते हैं कि अब सहने की सीमा समाप्त हो चुकी है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि हत्या और हिंसा कभी भी संस्कृति की पहचान नहीं हो सकती। असली पहचान वही है जो जीवन का सम्मान करे, रिश्तों में समानता लाए और हर प्रकार की हिंसा को जड़ से समाप्त करे।
-लेखिका एनएमपीजी कॉलेज हनुमानगढ़ में सहायक आचार्य हैं




