







गोपाल झा.
शब्द केवल ध्वनियां नहीं, वे भावनाओं और विचारों के वाहक होते हैं। किंतु जब हम शब्दों के आत्मिक अर्थ को नहीं समझते, तब उन पर शंका करना सहज हो जाता है। यही हाल ‘समाजवाद’ शब्द के साथ हुआ। कुछ समय पहले जब संविधान से इस शब्द को हटाने की बहस छिड़ी, तो कई तथाकथित विद्वानों ने इसे विदेशी करार दिया। किंतु यदि वे भारतीय इतिहास और संस्कृति का गहन अध्ययन करते, तो जान पाते कि समाजवाद इस भूमि की धरोहर है। इस धरोहर के प्रवर्तक थे, महाराजा अग्रसेन।

महाराजा अग्रसेन श्रीराम के वंशज थे। माना जाता है कि कुश की 34वीं पीढ़ी में उनका अवतरण हुआ, लगभग 4250 ईसा पूर्व। उन्होंने जिस सिद्धांत की स्थापना की, ‘एक ईंट और एक रुपया’, वह समाजवाद की सजीव मिसाल है। जब भी कोई नया परिवार नगर में बसता, प्रत्येक नागरिक उसे एक ईंट और एक रुपया देता। ईंट से घर की नींव रखी जाती और रुपया व्यापार की शुरुआत का आधार बनता। यह मात्र सहयोग नहीं, बल्कि सामूहिक उत्थान का सूत्र था, जिसने समाज में समरसता और समानता को जन्म दिया।

महाराजा अग्रसेन का समाज जाति और धर्म की दीवारों से मुक्त था। उन्होंने यह स्थापित किया कि कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं, सब बराबर। सबके लिए सुख, सबके लिए स्वास्थ्य और सबके लिए सम्मान। यही समाजवाद का असली अर्थ है। उन्होंने करुणा और मानवतावाद को अपने जीवन का मूल मंत्र बनाया। समाज को सहयोगात्मक व्यवहार और भाईचारे से जोड़ना ही उनका ध्येय था।

महाराजा अग्रसेन केवल समरस समाज के शिल्पकार नहीं थे, बल्कि सुधारों के अग्रदूत भी थे। उस समय यज्ञों में पशुबलि की कुप्रथा प्रचलित थी। उन्होंने इसे समाप्त किया और दया को जीवन का पथप्रदर्शक बनाया। अहिंसा को उन्होंने केवल उपदेश के रूप में नहीं, बल्कि जीवन के व्यवहार में उतारा। उनका मानना था कि करुणा ही स्थायी शांति और समृद्धि का मार्ग है।

समय का चक्र निरंतर घूमता है और आज हम पुनः उसी द्वार पर खड़े हैं जहां समाज को जाति और धर्म के नाम पर विभाजित किया जा रहा है। अमीर और गरीब के बीच की खाई इतनी गहरी हो चुकी है कि सामाजिक समरसता खतरे में है। आर्थिक नीतियां असमानता को बढ़ावा दे रही हैं और लोकतंत्र के नाम पर अलोकतांत्रिक निर्णय लिए जा रहे हैं। ऐसे संकटकाल में महाराजा अग्रसेन के विचार दीपक की तरह मार्गदर्शन करते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या हम उनकी जयंती पर केवल दीप जलाकर, झंडे लगाकर औपचारिक श्रद्धांजलि देंगे? या फिर उनके सिद्धांतों को आत्मसात कर एक नए समाज के निर्माण का संकल्प लेंगे? उनकी शिक्षाएं हमें यह प्रेरणा देती हैं कि सहयोग और करुणा से ही समाज का उत्थान संभव है। केवल उत्सव मनाना पर्याप्त नहीं, हमें उनके विचारों को जीवन में उतारना होगा।

हम भारतवासी सौभाग्यशाली हैं कि हमें महाराजा अग्रसेन जैसे महापुरुष की अमूल्य धरोहर मिली है। लेकिन यह धरोहर तभी जीवित रहेगी जब हम इसे व्यवहार में ढालेंगे। समाजवाद केवल राजनीति का शब्द नहीं, बल्कि जीवन जीने की पद्धति है। इसमें करुणा सबसे बड़ा धर्म है और सहयोग सबसे बड़ा पूंजी। महाराजा अग्रसेन का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना हजारों वर्ष पहले था, मानवता से बढ़कर कोई धर्म नहीं, दया से बढ़कर कोई साधना नहीं और सहयोग से बढ़कर कोई संपदा नहीं। यही उनका सच्चा समाजवाद है। यदि हम इसे स्वीकार करें, तो असमानता और विभाजन की खाइयां भर सकती हैं और भारत समरसता, समानता और समृद्धि की राह पर आगे बढ़ सकता है।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं


