






डॉ. एमपी शर्मा.
मनुष्य का जीवन समाज में व्यतीत होता है। समाज में रहकर निंदा (आलोचना) और प्रशंसा दोनों का सामना करना पड़ता है। जब कोई हमारी प्रशंसा करता है तो हम प्रसन्न हो जाते हैं, लेकिन जब निंदा सुननी पड़ती है तो मन व्याकुल हो उठता है। प्रश्न यह है कि क्या निंदा से परेशान होना उचित है?
संत कबीर कहते हैं,
‘निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबुन बिन निर्मल करे सुभाय।’
अर्थात् निंदक हमारे लिए आईना है। वह हमारी कमियों को सामने लाता है और हमें सुधारने का अवसर देता है। इसलिए निंदक को अपने पास ही रखना चाहिए।
इसी तरह रहीम कहते हैं,
‘जो बड़न को लघु कहे, नहीं रहीम घटि जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नाहीं।’
जो वास्तव में महान है, उसकी महानता दूसरों की बातों से कम नहीं होती। यदि कोई कृष्ण को भी अलग-अलग नामों से पुकारे, तो क्या उनकी महिमा घट सकती है?

एक बार भगवान बुद्ध को किसी व्यक्ति ने सबके सामने अपशब्द कहे। शिष्यों को बहुत गुस्सा आया, पर बुद्ध मुस्कराते रहे। बाद में उन्होंने कहा, ‘यदि कोई आपको उपहार दे और आप उसे स्वीकार न करें तो वह उपहार किसके पास रहेगा? उसी व्यक्ति के पास जिसने दिया।’ इसी तरह अपमान या निंदा भी तब तक हमारे पास नहीं आती, जब तक हम उसे स्वीकार न करें।

महात्मा गाँधी की निंदा तो उनके जीवनकाल में अनगिनत बार हुई। अंग्रेज़ उन्हें ‘फ़कीर’, ‘कमज़ोर’ और ‘पागल’ तक कहते थे। लेकिन गाँधीजी ने कहा था, ‘पहले वे आपको नज़रअंदाज़ करेंगे, फिर आपका मज़ाक उड़ाएँगे, फिर आपसे लड़ेंगे और अंत में आप जीत जाएंगे।’ यह उनकी निंदा से ऊपर उठने की क्षमता ही थी जिसने उन्हें महात्मा बना दिया।

कहते हैं कि एक कबूतर आईने में अपना चेहरा देख डर गया कि कोई दूसरा पक्षी उससे लड़ने आ गया है। उसने खुद को चोट पहुँचा ली। यह कहानी सिखाती है कि कई बार निंदा और आलोचना भी उसी तरह होती है, वास्तविकता में उसका कोई असर नहीं होता, हम खुद उसे सच मानकर परेशान हो जाते हैं।

अब सवाल है कि मन को कैसे समझाएँ? आसान सा तरीका है। निंदा को अवसर मानें, उसे आत्मचिंतन का साधन बनाइए। धैर्य रखें यानी तुरंत प्रतिक्रिया न दें, पहले शांति से सोचें। अहंकार को त्यागें यानी यदि कोई हमें छोटा कहता है तो क्या हमारी असली योग्यता सचमुच घट जाती है? सत्य और असत्य में भेद करें। यदि निंदा में सच्चाई है तो उसे सुधार लें, और यदि झूठ है तो व्यर्थ परेशान न हों। ईश्वर पर भरोसा रखें। हर व्यक्ति का मूल्यांकन अंततः उसके कर्मों से होता है, दूसरों की बातों से नहीं।

निंदा से भागना नहीं चाहिए। निंदा हमें धैर्य, सहनशीलता और आत्मसुधार का अवसर देती है। जो व्यक्ति निंदा से विचलित नहीं होता, वही सच्चे अर्थों में मजबूत और महान कहलाता है। जैसे सूर्य को बादलों से ढका जा सकता है, लेकिन उसकी रोशनी को कोई रोक नहीं सकता। उसी तरह सच्चे गुण और सच्चा कर्म किसी निंदा से प्रभावित नहीं होते।
-लेखक सामाजिक चिंतक, सीनियर सर्जन और आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं



