






डॉ. अर्चना गोदारा.
विभिन्न देवियों को पूजने वाले और बेटियों को लक्ष्मी कहने वाले भारतीय समाज में बेटा और बेटी के बीच भेदभाव का इतिहास बहुत पुराना और निराशाजनक है। अक्सर देखा गया है कि जब परिवार में एक महिला के बार-बार बेटियाँ जन्म लेती हैं तो अभिभावक उनके प्रति अपने मोह को तोड़ने के लिए या यह जताने के लिए कि ‘अब उन्हें और लड़की नहीं चाहिए’, उनका अजीबोगरीब नाम रख देते हैं। ये नाम केवल नाम नहीं होते, बल्कि उस छोटी और संकीर्ण मानसिकता का आईना भी होते हैं जिसमें बेटियों को बोझ और बेटों को सम्मान समझा जाता है। गाँव-कस्बों में आज भी ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ बच्चियों के नाम आईना, आ चुकी, बसकरो, बसकरी, धापली, भतेरी, अंतिमा, बादु आदि रख दिए जाते हैं।

आईना, मत आना, यानी अब तुम अंतिम हो इसके बाद लङकी पैदा नहीं होनी चाहिए। आचूकि- यानी कि लङकी आ चुकी, अब और लङकी नहीं चाहिए। बसकरो/बसकरी-मतलब अब और लड़की नहीं चाहिए। धापली यानी अब और बेटियाँ नहीं चाहिए यानी ‘बहुत हो गया’। भतेरी यानी इस नाम के पीछे वही ताना छिपा है कि ‘बहुत सारी’ हो गई हैं। अंतिमा मतलब उस बेटी को अंतिम मान लेना, यह मानना की अब और बेटी नहीं आएगी। अब बेटा ही पैदा होगा। बादु-बेकार या अतिरिक्त की तरह मानना। इसके विपरीत, जब उनके घर बेटा जन्म लेता है, तो उसका नाम राजा, पप्पू, दीपक, कुलदीप, अमर, सूरज आदि जिनमें गौरव, प्रकाश, प्यार और स्थायित्व का भाव भरा होता है, रखा जाता है।

यह दोगला व्यवहार बताता है कि समाज की सोच किस हद तक असमान और स्वार्थी रही है। यह प्रवृत्ति पितृसत्तात्मक संरचना का हिस्सा है, जहाँ माना जाता है कि वंश केवल बेटों से चलता है। बेटियों को ‘पराया धन’ या ‘दहेज का बोझ’ मानकर उनके अस्तित्व को व्यंग्यात्मक नामों से पुकारा जाता है । इससे न केवल बच्चियों का आत्मसम्मान आहत होता है बल्कि स्त्री-पुरुष असमानता और गहरी होती जाती है या यू कहें कि हो चुकी है ।

हालाँकि शिक्षा, जागरूकता, वैश्वीकरण और महिला उपलब्धियों के चलते यह सोच बदल रही है। आज वही बेटियाँ परिवार और समाज का गौरव बन रही हैं, जिनके नाम कभी ताने या दुख में रखे गए थे। खेल, साहित्य, विज्ञान, राजनीति हर क्षेत्र में बेटियाँ देश का नाम रोशन कर रही हैं।

वर्तमान में माता-पिता अपनी बेटियों को आशा, उज्जवल, ज्योति, काव्या, किरण, प्रज्ञा जैसे नाम दे रहे हैं, जिनमें उम्मीद, ज्ञान और रोशनी का भाव है। ये नाम एक नए युग का संकेत हैं, जहाँ बेटी केवल परिवार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि उसकी शक्ति और पहचान है। लेकिन ऐसी सोच बहुत सीमित है।

बेटियों को मिले अजीबोगरीब नाम केवल अतीत की कड़वी याद नहीं हैं बल्कि वर्तमान की भी तस्वीर है जो छोटे कस्बों और गाँवों मे आज भी जिंदा है। जिन्हें हमें स्वीकारते हुए बदलना होगा। यह सच है कि नाम केवल उच्चारण नहीं, बल्कि विचारों की छवि होते हैं। आज ज़रूरत है कि हम हर बेटी को ऐसा नाम दें, जिसमें सम्मान, प्रेम और भविष्य की रोशनी झलके। क्योंकि बेटीयां बोझ नहीं होती, वे परिवार की शक्ति होती है। ना ही बेटी ताना होती है बल्कि वे समाज का गर्व होती है।

अगर बदलना ही है तो समाज को अपनी सोच को बदलना होगा। सिर्फ लड़कियों के अजीबो गरीब नाम रखने से पैदाइश नहीं बदल सकती। ज्यादा लड़कियां पैदा करने से अच्छा है कि वह अपनी एक या दो बेटियों की अच्छे से परवरिश करें। क्योंकि वे माता-पिता की जिम्मेदारी होती हैं। दूसरों को दोष देने और कमियों को निकालने से अच्छा है कि माता-पिता अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभायें। इसे न केवल बेटियों को सम्मानजनक जीवन मिलेगा बल्कि माता-पिता को भी उनसे बहुत प्यार और इज़्ज़त मिलेगी।

बेटी भी पैदा होती है वैसे ही, जैसे बेटा,
उसी हाड़ मांस की होती है, जिस हाङ मांस का बेटा,
पैदा की जाती है, संतान अपने स्वार्थ के लिए,
फिर क्यों अपनी कमियों को ढकते हो उनके नाम से?
उन्हें भी पालो उतने ही प्यार से,
जितने प्यार से बेटा,
क्योंकि तुमने जन्म दिया है उन्हें ,
वे अपनी मर्जी या जिद्द से इस दुनिया में नहीं आई हैं।
-लेखिका राजकीय एनएमपीजी कॉलेज में सहायक आचार्य हैं


