




अमरपाल सिंह वर्मा.
क्या भारत को फिर से ‘सोने की चिडिय़ा’ बनाने की बात अब अप्रासंगिक हो गई है? आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कोच्चि में आयोजित राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में अपने भाषण में स्पष्ट रूप से जो कुछ कहा है, उसी से यह प्रश्न उठा है। उन्होंने कहा है कि भारत को अब अतीत की ‘सोने की चिडिय़ा’ नहीं बल्कि ‘शेर’ बनना चाहिए क्योंकि दुनिया आदर्शों का नहीं, ताकत का सम्मान करती है।
संघ प्रमुख का यह वक्तव्य केवल संघ के कार्यकर्ताओं के लिए ही नहीं है बल्कि नीति-निर्माताओं, शिक्षाविदों और आम नागरिकों तक पहुंचाया गया एक वैचारिक सन्देश है। भागवत के बयान से कई प्रश्न उठते हैं। क्या अब देश को फिर से सोने की चिडिय़ा बनने की सोच अपर्याप्त हो गई है? और यदि भारत को ‘शेर’ बनना है तो इसके मायने क्या हैं? देश की दिशा किससे तय होगी- समृद्धि की चिडिय़ा से या शक्ति के शेर से?

भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाना उसके ऐतिहासिक आर्थिक और सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक है। उस काल में हमारा देश व्यापार, शिल्प, शिक्षा और दर्शन में अग्रणी था लेकिन भारत का यह वैभव सामरिक दृष्टि से असुरक्षित था जिसका परिणाम अनेक विदेशी आक्रमणों और अंग्रेजों की गुलामी के रूप में निकला। ऐसे में मौजूदा दौर में भागवत देश को सिर्फ ‘सोने की चिडिय़ा’ बनाने के पक्ष में नजर नहीं आते हैं। हमारे लिए ‘सोने की चिडिय़ा’ गौरवशाली अतीत की स्मृति तो हो सकती है पर यह अपने आप में पूर्ण भविष्य की दिशा नहीं हो सकती।
भागवत के इस कथन में केवल एक प्रतीकात्मक बदलाव की वकालत नहीं है बल्कि भारत की सामूहिक चेतना को नए युग के लिए तैयार करने का संदेश है। यह वक्तव्य प्रतीकात्मक भाषा में एक गहन वैचारिक परिवर्तन का आह्वान करता प्रतीत हो रहा है।

भागवत का यह कहना कि भारत अब शेर बने, न कि चिडिय़ा, इसमें एक शक्तिशाली राष्ट्र की परिकल्पना है। यहां ‘शेर’ से अभिप्राय सिर्फ एक वन्य जीव से नहीं है बल्कि यह एक ऐसी राष्ट्रीय मानसिकता का प्रतीक है जो शक्तिशाली हो, आत्मनिर्भर हो, निर्णायक हो और अपने क्षेत्र की रक्षा कर सकने में सक्षम हो। इस संदेश से साफ है कि संघ ऐसा देश चाहता है जो हर चुनौती का सामना करने को सदैव तैयार हो। यकीनन, यह महत्वाकांक्षा ऑपरेशन सिंदूर की सफलता से पैदा हुई है, यानी जो देश में जो हौसला ऑपरेशन सिंदूर से उपजा है, वह निरंतर बढऩा चाहिए।
भागवत ने इंडिया बनाम भारत की भी बात की है। उनका कहना है कि जब तक हम अपने नाम, भाषा और विचारों में आत्मगौरव नहीं लाएंगे, तब तक दुनिया से सम्मान पाने की उम्मीद अधूरी रहेगी।

संघ प्रमुख ने जो कुछ कहा है, उसमें अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के लिए भी एक सन्देश है। हाल के सालों में भारत ने डिजिटल क्रांति, अंतरिक्ष विज्ञान, वैश्विक मंचों पर भागीदारी और रक्षा क्षेत्र में आत्म निर्भरता जैसे विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किए हैं परंतु भागवत चाहते हैं कि भारत को और अधिक निर्णायक, स्पष्ट और तेज गति से आगे बढऩा चाहिए। भारत को केवल ‘विकासशील’ नहीं बल्कि ‘दिशा देने वाला’ देश बनना है।
शेर बनने का अर्थ केवल सैन्य शक्ति बढ़ाने तक सीमित नहीं है। यह एक समग्र दृष्टिकोण है जिसमें शिक्षा, प्रौद्योगिकी, सांस्कृतिक आत्म विश्वास और वैश्विक रणनीति सब कुछ शामिल हैं। भागवत ने यह बातें शिक्षाविदों के सम्मेलन में कहीं हैं, इसलिए यह संदेश केवल सरकार या संघ कार्यकर्ताओं तक सीमित नहीं है। यह संदेश देश के हर नागरिक के लिए है और उनसे देश को सामर्थ्यवान बनाने में योगदान का आह्वान है। देश का पुराना आर्थिक वैभव लौटे, संघ के लिए यह आज भी महत्वपूर्ण है लेकिन अब वह इतने मात्र से संतुष्ट नहीं है। वह इसमें ‘शेर’ जैसी शक्ति, साहस और रणनीति का समावेश करना चाहता है।

भागवत का यह बयान न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि संघ आगामी लक्ष्यों की ओर भी इशारा करता है। भागवत का बयान संघ के लिहाज से भारत की भावी यात्रा की दिशा तय करने वाला है जो न केवल समृद्ध हो बल्कि ताकतवर, निर्णायक और आत्म विश्वास से लबरेज भी हो। संदेश साफ है कि सोने की चिडिय़ा बनकर हम आकर्षक भले लगें लेकिन ‘शेर’ बनकर ही हम सुरक्षित और सम्मानित रह सकते हैं।
भागवत का यह बयान दरअसल भारत की नई आकांक्षा का प्रतीक है। यह उस मानसिकता से बाहर आने की घोषणा है जो भारत को केवल वैभवशाली अतीत के रूप में देखती है। यह सही भी है। अब हमें अतीत को छोड़ भविष्य में जीने की तैयारी करनी ही चाहिए। यदि भारत एक शक्तिशाली, विवेकशील और आत्म निर्भर ‘शेर’ के रूप में खड़ा होगा तो सिर्फ उसकी समृद्धि और बढ़ेगी बल्कि उसके वैश्विक सम्मान और प्रभाव में भी उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होगी। सिर्फ देश की समृद्धि ही नहीं, सुरक्षा भी जरूरी है। हम अतीत के स्वर्ण युग की छाया में वर्तमान की चुनौतियों को अनदेखा नहीं कर सकते।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)


