


गोपाल झा
झालावाड़। नाम लेते ही आंखों के सामने एक राजनीतिक किला खड़ा हो जाता है, जिसकी नींव में वसुंधरा राजे की लंबी सियासी पारी दर्ज है और जिसकी छांव में दुष्यंत सिंह की लोकसभा सीट पीढ़ीगत उत्तराधिकार की तरह महफूज रही है। लेकिन उसी झालावाड़ की जमीन पर 25 जुलाई की सुबह जब एक स्कूल की छत ढही, तो न केवल आठ मासूम ज़िंदगियाँ मलबे में दफ़्न हो गईं, बल्कि उस ‘राजनीतिक किले’ की दीवारों में भी दरार पड़ गई, अगर आंखें देख पाने की हिम्मत रखें तो।
दरअसल, छत गिरने की आवाज़ मात्र नहीं थी, वह लोकतंत्र की नींव पर पड़ी एक ऐसी चोट थी, जिसे किसी एक दल, नेता या मंत्री के बयान से ढका नहीं जा सकता। चीखते-बिलखते बच्चों की आवाज़ें, भागते ग्रामीण, मलबे से लहूलुहान बच्चों को खींचते हाथ। ये सब उस खामोश व्यवस्था का आईना हैं, जिसने दशकों से ‘घोषणाओं’ की माला पहनकर ‘विकास’ का भेष ओढ़ रखा है।
क्या यह केवल एक हादसा था? नहीं। यह सिस्टम की जर्जर छत थी जो सालों से गिरने का इंतज़ार कर रही थी। आंकड़े बताते हैं, राजस्थान में करीब 8000 सरकारी स्कूल ऐसे हैं जिनकी इमारतें कब्रगाह बनने की ओर अग्रसर हैं। शिक्षकों ने चिट्ठियाँ लिखीं, प्रधानाचार्यों ने चेतावनियाँ दीं, मगर सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोग वोट बैंक की फाइलों में ही उलझे रहे। कभी पाठ्यक्रम बदलने की हड़बड़ी, कभी किसी जाति विशेष को रिझाने के प्रयास, और कभी चुनावी पर्यटन यात्राओं की मुफ्त घोषणाएँ। जनहित और शिक्षा जैसे मुद्दे कहीं हाशिए पर सर पटकते रह जाते हैं।

मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने हादसे से ठीक एक दिन पहले अनुसूचित जाति वर्ग को ‘पंचतीर्थ यात्रा’ की मुफ्त योजना का ऐलान किया। इस योजना में रेल यात्रा, आवास, भोजन सब शामिल। लेकिन प्रश्न यह है कि जब इन वर्गों के बच्चे पढ़ने के लिए सुरक्षित भवन तक नहीं पा रहे, तब उन्हें तीर्थ दर्शन की सुविधाएं देना क्या ईमानदारी है या सिर्फ भावनात्मक शोषण?
बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों को सही मायनों में समझा होता तो इस बात पर सरकार का ध्यान होता कि सामाजिक न्याय की बुनियाद शिक्षा है, न कि प्रतीकात्मक यात्राएं। महापुरुषों को स्मरण करने का सर्वाेत्तम तरीका यही है कि उनके सपनों को धरातल पर उतारा जाए। बाबा साहेब ने शिक्षा, स्वाभिमान और अधिकार की बात की थी, उनकी प्रतिमाएं या तीर्थ नहीं, बल्कि विचारधारा ज़रूरी है।

और यह केवल वर्तमान सरकार की नहीं, अपितु हर उस सत्ता की जिम्मेदारी है जिसने वर्षों से इस जिले को अपने नियंत्रण में रखा, मगर बुनियादी ढांचे को बेहतर नहीं बना सका। जब पांच बार एक ही नेता यहां से विधानसभा सदस्य बनती रही हो और फिर उनका पुत्र पांच बार सांसद बन चुका हो, तब यह सोचना लाज़मी है कि इतने वर्षों में शिक्षा ढांचे में क्या सुधार हुआ?
इस हादसे के बाद मंत्री के बयान आए, प्रशासन ने ताबड़तोड़ निलंबन कर दिया, संवेदना जताई गई, राहत राशि घोषित हो जाएगी। पर क्या यह सब कुछ उस मलबे के नीचे दबे सपनों को फिर से लौटा सकता है? क्या कोई बयान उस मां की चीख को शांत कर सकता है जिसकी गोद अब सूनी हो गई?
यह एक यथार्थ है जिसे हम बार-बार नजरअंदाज करते रहे हैं। हम, आम जनता, जिन्हें सिर्फ एक-दो दिन की गहमागहमी के बाद इस त्रासदी को भूल जाना है। और शायद अगली दुर्घटना का इंतज़ार करना है। सरकारें जानती हैं कि हमारा स्मृति-कोष बहुत छोटा है। इसलिए वे राहत की घोषणाओं में छिप जाते हैं, आत्ममुग्धता के भाषणों में खो जाते हैं।

लेकिन क्या एक जीवंत लोकतंत्र का यही चरित्र होना चाहिए? क्या हम यही लोकतंत्र चाहते हैं जिसमें राजनेता अपनी राजनीतिक विरासत को सुरक्षित करने में व्यस्त हों और बच्चे मलबे में दम तोड़ते रहें? वाकई, अब यह लोकतंत्र नहीं बल्कि जनविमुख तंत्र बनता जा रहा है?
सच तो यह है कि अब केवल शिक्षकों के निलंबन से कुछ नहीं होगा। जिम्मेदारी उस पूरे ढांचे को लेनी होगी जिसने वर्षों तक आंख मूंदकर जर्जर भवनों में पढ़ाई को ‘व्यवस्था’ माना। ज़रूरत है राजनेताओं, उच्चाधिकारियों और प्रशासनिक तंत्र की सामूहिक जवाबदेही की। और उससे भी अधिक ज़रूरत है कि हम, आम लोग, सिर्फ संवेदना प्रकट करने वाले दर्शक बनकर न रहें, बल्कि सवाल करने वाले नागरिक बनें।
झालावाड़ की यह त्रासदी केवल एक जिले की नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश की चेतावनी है। यह चेतावनी है उस व्यवस्था के लिए जो अपने प्राथमिक लक्ष्यों से भटक चुकी है। यह वक्त है आत्ममंथन का, राजनीति के चश्मे से नहीं, मानवता की नजर से। वरना अगली बार गिरने वाली छत किसी और जिले की होगी, लेकिन दोष एक ही सिस्टम का रहेगा।
-लेखक भटनेर पोस्ट मीडिया ग्रुप के चीफ एडिटर हैं

