


ओम बिश्नोई.
मनुष्य ने हजारों वर्षों की विकास यात्रा में अनेक पड़ाव पार किए हैं। कभी घने जंगलों की शरण ली, कभी गुफाओं की दीवारों से बातें कीं। मौसमों की मार झेली, जंगली जानवरों से दो-दो हाथ किए और धीरे-धीरे उसने रहन-सहन का तरीका सीखा। उसने घर बनाना सीखा, फिर वहीं रहते हुए खेती करना, समुदाय रचना और व्यापार के गुर भी सीख लिए।
आज जब हम गगनचुंबी इमारतों की ओर देखते हैं, तो मनुष्य की उसी यात्रा की झलक दिखती है। महानगरों में ‘टावर’ कहे जाने वाले ये ऊँचे भवन, केवल कंक्रीट की रचनाएँ नहीं, बल्कि हमारी ज़मीन से दूर होती जा रही जड़ों का आईना भी हैं। ज़मीन की कीमत आसमान छू रही है, और इसी कारण अब ज्यादातर लोग टावरों के ‘घरोदों’ में बसने लगे हैं। यह बदलाव सिर्फ भौगोलिक नहीं, मनोवैज्ञानिक भी है कृ सुरक्षा और स्थिरता की चाहत में मानव ने ऊँचाई को अपना लिया।
समय के साथ घर अब केवल चारदीवारी नहीं रहे। वास्तुकला एक समर्पित पेशा बन गया, जिसमें कल्पना, विज्ञान और प्रकृति का सुंदर संगम है। आर्किटेक्ट अब इस बात पर सोचते हैं कि घरों में धूप किस दिशा से आए, खिड़कियों से हवा का प्रवाह कैसे संतुलित हो, रंग और म्यूरल से दीवारों में जीवन कैसे फूंका जाए। एक घर को सिर्फ सुंदर नहीं, बल्कि जीवंत कैसे बनाया जाए, यही अब उनकी चुनौती है।

हमारे पूर्वजों ने जब गांवों और ढाणियों में घर बनाए, तो उनमें आंगन, बाखल और बरामदे अनिवार्य हिस्सा थे। वे केवल बनावट नहीं थे, जीवन का विस्तार थे। आज भी यदि किसी कस्बे या छोटे शहर में थोड़ी-सी भी खुली जगह मिल जाए, तो लोग आंगन और बरामदों को आर्किटेक्चर का हिस्सा बनाते हैं पारंपरिकता और आधुनिकता का फ्यूज़न करते हुए।
बरामदों और आंगनों में बैठकी होती है, गपशप चलती है, हँसी की गूंजें दीवारों से टकराकर दिलों में उतरती हैं। यह वो स्थान होते हैं जहाँ ‘घर’ वास्तव में ‘घर’ बनता है। आर्किटेक्ट इस बात को अब भली-भाँति समझने लगे हैं कि कैसे नेचर की इकोलॉजी, बायोलॉजी और मनोविज्ञान (साइकोलॉजी) का संयोजन करके, तेज़ रफ्तार ज़िंदगी जीने वाले लोगों को एक सुकूनभरा ठिकाना दिया जाए।
जब बरामदे और आंगन मित्रों या परिजनों की महफिल से सजते हैं, तब घर में अवसाद की कोई गुंजाइश नहीं बचती। हँसती, बलखाती बेलें जब हवा में झूलती हैं, तो उनमें कोई अदृश्य संगीत बजता है। वे संगीत की लहरियाँ होती हैं कृ जो मन को छू जाती हैं।
आखिर में, घर क्या है? वह प्रकृति का ही तो विस्तार है। मिट्टी, हवा, धूप, पानी और भावनाओं से मिलकर बना एक जीवंत इकाई, जो केवल छत नहीं, एक अपनापन है।
-लेखक राजस्थान के सुविख्यात आर्किटेक्ट हैं

