


भटनेर पोस्ट डॉट कॉम.
हनुमानगढ़ टाउन में नई आबादी, गली नंबर 7 से निकलती है एक ऐसी रोशनी, जो उम्र के अंधेरों को हर रोज पराजित करती है। यह रोशनी है डॉ. सुरेंद्र छाबड़ा के ज्ञान और जुनून की, जो 69 वर्ष की आयु में भी किताबों को अपना पहला प्यार माने बैठे हैं। आज जब अधिकांश लोग रिटायरमेंट के बाद जिंदगी को सुकून और विश्राम से जोड़ते हैं, डॉ. छाबड़ा उस जीवन को सीखने और पढ़ने की नई मंजिल में तब्दील कर चुके हैं। वह कहते हैं, ‘ज्ञान का कोई रिटायरमेंट नहीं होता, और विद्यार्थी बनने के लिए उम्र की नहीं, उत्साह की ज़रूरत होती है।’
यह पढ़कर चौंकिए मत, बल्कि गर्व कीजिए कि हमारे बीच एक ऐसा व्यक्ति है, जिसने 17 बार स्नातक व स्नातकोत्तर डिग्रियां पूरी की हैं और अब 18वीं व 19वीं पीजी डिग्री (उर्दू और साइकोलॉजी) के फाइनल एग्जाम की तैयारी में जुटे हैं।
यह कोई दिखावा नहीं, बल्कि उस अदम्य इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति है, जिसने 1972 में पढ़ाई अधूरी छोड़ने के बाद भी 15 साल तक अपने भीतर की पढ़ने की आग को ज़िंदा रखा।
कठिनाइयों से जूझता एक सपना
1971 में जब सुरेंद्र छाबड़ज्ञ ने दसवीं पास की, तब तक सपने बड़े थे। लेकिन 1972 में पीयूसी के बाद आर्थिक मजबूरियों ने उन्हें पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर कर दिया। जिंदगी की रफ्तार कुछ और हो गई, लेकिन मन में किताबों के लिए एक कोना हमेशा जीवित रहा। साल 1987 में, जब हालात कुछ सुधरे, तब उन्होंने फिर से किताबों का दामन थामा और वह पहली स्नातक डिग्री की ओर बढ़े। फिर क्या था, एक के बाद एक, स्नातकोत्तर, एलएलबी, बीएड, डीएलएल और डी.फार्मा जैसे कोर्स भी पूरे कर डाले।

शिक्षा का संसार यानी विषयों की महाकुंभ यात्रा
डॉ. छाबड़ा ने अपनी शिक्षा-यात्रा को किसी एक दिशा तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने जिन विषयों में डिग्रियां ली हैं, वे स्वयं में विविधता का उत्सव हैं, समाजशास्त्र, लोक प्रशासन, राजनीति विज्ञान, इतिहास, दर्शन शास्त्र, हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी, राजस्थानी, संस्कृत, अर्थशास्त्र, शिक्षा, एम.कॉम, एम.ए. पुलिस प्रशासन व गांधी और शांति अध्ययन, एम.एस.डब्ल्यू (मास्टर ऑफ सोशल वर्क) और अब उनकी नजर उर्दू और साइकोलॉजी पर है। यह सब उन्होंने किसी नौकरी या प्रतिष्ठा के लिए नहीं, बल्कि केवल आत्म-संतोष और ज्ञान-प्राप्ति के लिए किया है।
जीवन का दर्शन:पढ़ते रहो, बढ़ते रहो
डॉ. सुरेंद्र छाबड़ा मानते हैं कि शिक्षा सिर्फ औपचारिकता नहीं है, यह आत्मा की प्यास है। उनका यह विचार हर उस व्यक्ति को आइना दिखाता है, जो डिग्रियों को नौकरी तक सीमित मानते हैं। वे स्पष्ट कहते हैं, ‘मैंने कभी किसी नौकरी के लिए नहीं पढ़ा, मैंने अपने आत्म-सुख और जिज्ञासा के लिए पढ़ाई की है। हर दिन कुछ नया सीखने की ललक आज भी वैसी ही है, जैसी पहले दिन थी।’

समाज को मिल रही है प्रेरणा
डॉ. सुरेंद्र छाबड़ा को गुरु मानने वाले एडवोकेट देवकीनंदन चौधरी बताते हैं, ‘आज जब युवा पीढ़ी पढ़ाई को बोझ समझने लगी है, तब डॉ. छाबड़ा जैसे लोग एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं। वे यह सिखाते हैं कि सीखना सिर्फ कॉलेज के चार साल नहीं होता, यह जीवन का हर दिन होता है। उनका जीवन, उनके प्रयास, उनकी लगन… यह सब समाज को एक बहुत गहरा संदेश देता है कि किताबों से दोस्ती कभी मत छोड़ो, ये दोस्त वक्त, उम्र और हालात से कहीं ज़्यादा भरोसेमंद होती हैं।’
पूर्व पार्षद मनोज बिनोचा कहते हैं, ‘डॉ. सुरेंद्र छाबड़ा को देखकर लगता है कि अगर किसी चीज से सच्चा प्रेम हो, तो वह उम्र, जिम्मेदारियों और रुकावटों की दीवारों को तोड़ सकता है। वे चलती-फिरती लाइब्रेरी, जीवित प्रेरणा और शिक्षा के प्रहरी हैं।’
