





डॉ. एमपी शर्मा.
हम ऐसे समय में जी रहे हैं जहाँ लोग आसपास की घटनाओं, अन्याय, झूठ, हिंसा और शोषण के प्रति या तो उदासीन हैं, या मौन। जैसे समाज सामूहिक रूप से कोई ‘साइलेंट मोड’ में चला गया हो। यह चुप्पी न सिर्फ़ चिंताजनक है, बल्कि लोकतंत्र और सामाजिक चेतना के लिए घातक भी है। कवि उदय प्रकाश की पंक्तियाँ सच को आईना दिखाती हैं,
‘आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने पर आदमी मर जाता है।’
दरअसल, चुप्पी का सबसे बड़ा कारण है, डर। लोगों को लगता है कि बोलने से नुकसान होगा। नौकरी जाएगी, मुकदमा होगा, ट्रोलिंग होगी। आत्मकेंद्रित जीवनशैली। जैसे, “मुझे क्या करना है?” इस सोच ने समाज को “मैं” में बाँट दिया है। सिस्टम पर विश्वास की कमी। मतलब, लोग मान चुके हैं कि आवाज़ उठाने से कुछ नहीं बदलेगा। सूचना की अधिकता और संवेदना की कमी। यानी रोज़ाना इतनी खबरें, दुख, अन्याय की सूचनाएं मिलती हैं कि इंसान भावशून्य हो गया है। कुछ भी न कहना अब समझदारी या संतुलन का प्रतीक मान लिया गया है।
यह चुप्पी कहाँ ले जाएगी?
अन्याय को बल मिलेगा। अन्याय तभी तक फलता है जब तक इंसाफ़ माँगने वाले चुप रहते हैं। लोकतंत्र खोखला हो जाएगा। लोकतंत्र सिर्फ़ वोट देने से नहीं, बल्कि हर दिन बोलने, सवाल करने और जागरूक रहने से जीवित रहता है। असली मुद्दों से ध्यान हटेगा। जब जनता चुप है, तो शोर केवल फालतू मुद्दों का होता है। भविष्य की पीढ़ियाँ असंवेदनशील बनेंगी। अगर हम आज बोलना बंद करेंगे, तो हमारे बच्चे अन्याय को सामान्य मान लेंगे।
तो क्या करें?
बोलना ज़रूरी है। हर कोई पत्रकार नहीं बन सकता, पर हर कोई नागरिक ज़रूर है। कभी-कभी सिर्फ़ एक सवाल पूछना या एक विरोध दिखाना ही बहुत होता है। जागरूक रहें, सवाल करें। समाचार पढ़ें, समझें, दूसरों को भी सजग बनाएं। छोटे स्तर से शुरुआत करें। घर, मोहल्ले, ऑफिस, जहाँ गलत हो रहा है, वहाँ सच कहें। संवेदनशील बनें। दूसरों की पीड़ा महसूस करें, केवल अपने आराम और सुरक्षा तक सीमित न रहें। डिजिटल प्लेटफॉर्म का सकारात्मक उपयोग करें। सोशल मीडिया पर सही बात को साझा करें, फैक्ट चेक करें, झूठ का विरोध करें।
ंभगत सिंह ने कहा था-‘अगर बहरों को सुनाना है, तो आवाज़ को ज़ोरदार होना पड़ेगा।’ महात्मा गांधी ने अकेले सत्याग्रह शुरू किया, और पूरा देश साथ खड़ा हो गया। नर्मदा बचाओ आंदोलन हो या निर्भया कांड के बाद का जन आक्रोश, जब जनता उठती है, तो व्यवस्था झुकती है। अगर सही समय पर बोलोगे नहीं, तो एक दिन बोलने का हक भी छिन जाएगा। चुप्पी से सिर्फ़ डर, अन्याय और अंधकार फैलता है। हमें फिर से सोचने और बोलने की संस्कृति को जीवित करना होगा,
क्योंकि सोचना और बोलना ही इंसान और समाज की पहचान है।
-लेखक सामाजिक चिंतक और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं




