




डॉ. एमपी शर्मा.
आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ तर्क, विश्लेषण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रमुखता मिल रही है, वहीं आस्था, धर्म और अध्यात्म जैसे विषय नई बहसों और धारणाओं के केंद्र में आ गए हैं। ‘आस्तिक’, ‘नास्तिक’, ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘धर्म विरोधी’ जैसे शब्द अब केवल दार्शनिक विमर्श का हिस्सा नहीं, बल्कि सामान्य बातचीत का भी हिस्सा बन चुके हैं। यह परिवर्तन दर्शाता है कि समाज सोच रहा है, सवाल कर रहा है और अपने विश्वासों की पड़ताल कर रहा है। किंतु इन शब्दों और विचारधाराओं का सही अर्थ समझना उतना ही आवश्यक है जितना कि उन्हें अपनाना या खंडित करना।
भारत जैसी विविधता से भरी भूमि पर, जहाँ परंपराएँ और आधुनिकता साथ-साथ चलती हैं, वहां इन अवधारणाओं की गहराई को समझे बिना किसी निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाज़ी होगी। इस लेख में हम आस्तिकता, नास्तिकता, धर्मनिरपेक्षता और धर्मांधता जैसे विचारों को न केवल परिभाषित करेंगे, बल्कि उनके सामाजिक प्रभाव, ऐतिहासिक संदर्भ और समकालीन प्रासंगिकता को भी समझने का प्रयास करेंगे। उद्देश्य केवल वैचारिक भिन्नता को दिखाना नहीं, बल्कि यह समझाना है कि इन विविध दृष्टिकोणों का सह-अस्तित्व ही किसी सभ्य समाज की पहचान है।
आज के समय में जब विज्ञान, तर्क और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का बोलबाला है, तब आस्था, धर्म और आध्यात्म को लेकर समाज में अनेक धारणाएँ बन रही हैं। ‘आस्तिक’, ‘नास्तिक’, ‘धर्मनिरपेक्ष’, और ‘धर्म विरोधी’ जैसे शब्द सुनने में आम हो गए हैं, परंतु इनके अर्थ, उपयोग और सामाजिक प्रभाव को समझना आज भी आवश्यक है। आस्तिक शब्द का शाब्दिक अर्थ है, ‘आस्था रखने वाला’। पारंपरिक रूप से आस्तिक वह व्यक्ति माना जाता है जो ईश्वर में विश्वास करता है, वेदों अथवा किसी धर्मग्रंथ की प्रमाणिकता को स्वीकार करता है, आत्मा, पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत में विश्वास रखता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत में ‘आस्तिकता’ को केवल ईश्वर-विश्वास से नहीं, बल्कि दर्शन के आधार पर परिभाषित किया गया है। जैसे सांख्य दर्शन (कपिल मुनि का), ईश्वर को न मानने के बावजूद वेदों को मानता है, इसलिए ‘आस्तिक दर्शन’ कहलाता है।
नास्तिक कौन है? नास्तिक वह व्यक्ति होता है जो ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म या धर्मग्रंथों की प्रमाणिकता को नहीं मानता, वह तर्क, अनुभव और वैज्ञानिक सोच के आधार पर जीवन को समझता है। चार्वाक दर्शन (भौतिकवादी दर्शन), बौद्ध और जैन दर्शन को प्राचीन भारत में नास्तिक दर्शन माना गया।
नास्तिक होने का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति अनैतिक, क्रूर या समाज विरोधी है। वह सिर्फ़ परंपरागत धार्मिक मान्यताओं को नहीं मानता। कई नास्तिक व्यक्ति नैतिकता, करुणा और सेवा के उत्कृष्ट उदाहरण होते हैं।
ऐसे लोग, जो किसी धर्म के अंध-समर्थक नहीं होते, पर सभी धर्मों का सम्मान करते हैं। मानते हैं कि हर धर्म में अच्छाई है और उसे व्यक्तिगत आस्था का विषय माना जाना चाहिए। सार्वजनिक जीवन में धर्म को व्यक्तिगत स्तर पर सीमित रखना पसंद करते हैं। भारत का संविधान भी इसी ‘धर्मनिरपेक्षता’ की बात करता है, सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखना, न किसी का विरोध न किसी का पक्षपात।
क्या यह दृष्टिकोण आसान है? बिलकुल नहीं। यह सबसे कठिन है क्योंकि यह दोनों ध्रुवों कट्टरता और पूर्ण अस्वीकृति के बीच संतुलन साधता है। इसमें सोच, सहनशीलता और समझदारी की बहुत आवश्यकता होती है।
धर्म और धर्मांधता
धर्म, मूलतः संयम, करुणा, सत्य, अहिंसा, सेवा और आत्म-उत्थान की बात करता है। यह आत्मा की शुद्धता और समाज के कल्याण की प्रक्रिया है। धर्म का उद्देश्य होता है व्यक्ति को बेहतर मानव बनाना। धर्मांधता यानी जब धर्म के नाम पर कट्टरता, नफ़रत, हिंसा और भेदभाव फैलाया जाए। जब किसी एक विचार या आस्था को श्रेष्ठ मानते हुए दूसरों को नीचा दिखाया जाए। जब धर्म, सत्ता या नियंत्रण का माध्यम बन जाए, तो वह धर्म नहीं, ‘धर्मांधता’ है।
कौन-सा दृष्टिकोण सही है?
यह प्रश्न सीधा नहीं है, क्योंकि आस्तिकता व्यक्ति को आशा और आंतरिक बल देती है। नास्तिकता व्यक्ति को तर्क और स्वतंत्र सोच देती है। सापेक्ष या धर्मनिरपेक्ष ष्टिकोण व्यक्ति को समभाव और विवेक देता है। सही दृष्टिकोण वही है जो दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करे, किसी को मजबूर न करे, प्रेम, करुणा और न्याय को बढ़ावा दे। धर्म हो, नास्तिकता हो या तटस्थता। सबका मूल उद्देश्य होना चाहिए “सत्य की खोज और मानवता की सेवा”। हमें यह याद रखना चाहिए कि आस्था का विरोध तर्क नहीं, अंधता है; और तर्क का विरोध आस्था नहीं, अहंकार है। धर्म को जीना चाहिए, ओढ़ना नहीं; और नास्तिकता को समझना चाहिए, प्रचारित नहीं।
संक्षेप में, आज के विषम सामाजिक परिवेश में हमें दूसरों के मत, विश्वास और शैली को सहन करना सीखना होगा। समाज वही प्रगति करता है जहाँ आस्तिक, नास्तिक और सापेक्ष कृ सभी को सोचने और जीने की स्वतंत्रता मिले।
-लेखक पेशे से सीनियर सर्जन, स्वभाव से सामाजिक चिंतक और आईएमए राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं





