





ओम बिश्नोई.
जब हम आज़ाद भारत की नींव के पत्थरों की बात करते हैं, तो पंडित जवाहरलाल नेहरू का नाम स्वतः ही चमकता है, एक ऐसा नाम जिसने न केवल आज़ादी के आंदोलन में योगदान दिया, बल्कि आज़ादी के बाद भारत को दिशा देने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी निभाई। नेहरू केवल एक राजनेता नहीं थे, बल्कि एक विचारक, एक संवेदनशील मानव और भारत के भविष्य के प्रति अत्यंत सजग राष्ट्रनायक थे। आज, जब कुछ वर्ग सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ झूठी बातें फैलाते हैं, तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम तथ्यपरक और विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से उन्हें जानें।
जब 15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ, तब देश का माहौल जश्न के साथ-साथ चिंता और भय से भी भरा था। विभाजन की विभीषिका में लाखों लोग मारे गए, बेघर हुए, और भारत सांप्रदायिकता की आग में जल रहा था। ऐसे समय में एक मज़बूत, लेकिन संवेदनशील नेतृत्व की ज़रूरत थी, जो देश को ना सिर्फ शांत रखे, बल्कि एक नई राह पर आगे बढ़ाए। पंडित नेहरू ने इसी कठिन दौर में प्रधानमंत्री पद की बागडोर संभाली। उनके नेतृत्व में भारत ने ‘एक राष्ट्र, एक संविधान, एक लोकतंत्र’ की भावना को अपनाया। जबकि विभाजन ने कई देशों को तानाशाही की ओर धकेला, भारत ने लोकतंत्र को चुना। यह पंडित नेहरू की राजनीतिक परिपक्वता और दृढ़ इच्छाशक्ति का ही परिणाम था कि भारत ने बहुलतावाद, धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संविधान का मूल बनाया।

नेहरू जी का सपना एक ऐसा भारत था जो विज्ञान, तकनीक, शिक्षा और औद्योगिक विकास में अग्रणी हो। उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की, जिसने देश को योजनाबद्ध विकास की राह दिखाई। ‘डीम्ड यूनिवर्सिटी’, ‘आईआईटी’, ‘आईआईएससी’, ‘भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर’ जैसे संस्थानों की स्थापना उसी सोच का परिणाम थी। वे कहते थे, ‘आज के बच्चे कल के भारत हैं,’ और इसलिए उन्होंने शिक्षा पर सबसे अधिक बल दिया।
भारत का यह भविष्यवादी नेता जानता था कि अगर भारत को विश्वमंच पर सम्मान पाना है, तो उसे आत्मनिर्भर और वैज्ञानिक सोच वाला बनाना होगा। ‘नवभारत’ का सपना केवल भाषणों में नहीं, जमीनी स्तर पर योजनाओं और संस्थानों में नजर आने लगा।

स्वतंत्र भारत की विदेश नीति को आकार देने में भी नेहरू की भूमिका अद्वितीय रही। उन्होंने ‘गुटनिरपेक्ष आंदोलन’ की नींव रखी। एक ऐसा दृष्टिकोण जो भारत को अमेरिका या सोवियत संघ के दबाव में आने से बचाता था। वे चाहते थे कि भारत अपनी स्वतंत्र सोच और संप्रभुता बनाए रखे। चीन के साथ 1962 का युद्ध उनकी सबसे बड़ी विफलताओं में गिना जाता है, लेकिन उसे स्वीकार करने का साहस भी उनके भीतर था। उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ बैठकर गलती का मूल्यांकन किया, आत्ममंथन किया और सेना के आधुनिकीकरण की दिशा में काम शुरू किया।
पंडित नेहरू ने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया। भारत छोड़ो आंदोलन हो या नमक सत्याग्रह, असहयोग आंदोलन हो या जेल यात्राएं, उन्होंने हर मोर्चे पर योगदान दिया। एक समय था जब वे अपनी वकालत छोड़कर देशसेवा में कूद पड़े। उनके लिए कांग्रेस केवल एक पार्टी नहीं, बल्कि एक परिवार थी और भारत, उनका कर्तव्यक्षेत्र।
उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में जो सुविधाएं लीं, वे उनके कद की तुलना में बेहद सामान्य थीं। उनके जीवन में दिखावटी ऐश्वर्य नहीं, बल्कि सादगी, अनुशासन और विचारशीलता थी। बच्चों से उनका प्रेम जगजाहिर था, ‘चाचा नेहरू’ का संबोधन कोई प्रचार से नहीं, बल्कि उनके अपने स्वभाव से उपजा था।

आज सोशल मीडिया का दौर है, जहां अफवाहें तथ्यों से तेज़ भागती हैं। पंडित नेहरू के खिलाफ झूठी बातों का प्रचार एक साजिश की तरह किया जाता है। यह विडंबना ही है कि एक ऐसा नेता, जिसने देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, उसे राजनीतिक चश्मे से परखने की कोशिश की जा रही है।
ऐसे मानसिक रूप से कुंठित लोग, जो बिना तथ्य जाने, केवल नफ़रत के आधार पर अपने विचार फैलाते हैं, वे न सिर्फ नेहरू का, बल्कि पूरे राष्ट्र के बौद्धिक स्तर का अपमान कर रहे हैं। यह समय है जब युवा पीढ़ी को सतर्क रहना चाहिए, और नेहरू को झूठी अफवाहों से नहीं, उनकी नीतियों, उनके भाषणों, और उनके कार्यों से जानना चाहिए।
27 मई को नेहरू जी की पुण्यतिथि होती है। यह वही दिन है जब देश ने अपने पहले प्रधानमंत्री को खोया था। लेकिन उनके विचार आज भी जीवित हैं। चाहे वह ‘डेमोक्रेसी’, ‘सेक्युलरिज़्म’, ‘साइंटिफिक टेम्पर’ की बात हो, या भारत को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से जोड़ने की, नेहरू की सोच आज भी हमें दिशा देती है।
आज जब हम पंडित नेहरू को याद करते हैं, तो यह केवल एक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि उनके मूल्यों को अपनाने और झूठ के खिलाफ खड़े होने का संकल्प होना चाहिए। वक्त की धूल से इतिहास को ढका जा सकता है, मिटाया नहीं जा सकता।
नेहरू को समझिए, जानिए, क्योंकि उन्होंने भारत को समझा और संवारा था।
-लेखक सुविख्यात आर्किटेक्ट हैं



