गोपाल झा.
यह कहानी है हनुमानगढ़ नगरपालिका चुनाव की। साल था 1994 यानी जिला बनने के महज चार माह बाद। कुल सीटें थीं 40 और भाजपा के पास थे 16 पार्षद। बोर्ड बनाने के लिए चार और पार्षद की जरूरत थी। राज कुमार तंवर कांग्रेसी खेमे में थे। उनके पास आठ पार्षद थे। तंवर ने कांग्रेस के तत्कालीन वरिष्ठ नेता चौधरी आत्माराम के सामने चेयरमैन बनने की इच्छा जताई। बात नहीं बनी। उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया और चेयरमैन बन गए। तंवर ने राजनीतिक जीवन की शुरुआत कांग्रेस से की। उस वक्त आधुनिक भाजपा के कद्दावर नेता डॉ. रामप्रताप भी कांग्रेस में ही थे। तंवर उनके साथ हमसाया की तरह रहते। वर्ष 1993 में डॉ. रामप्रताप भाजपा में शामिल हुए। विधायक और मंत्री बने। अगले साल यानी 1994 में जब नगरपालिका चुनाव आया तो उनके खास सिपहसालार राजकुमार तंवर ने भी चुनाव जीतने के बाद भाजपा का दामन थाम लिया और चेयरमैन बने। तंवर बताते हैं ‘उस चुनाव में मैं कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार था। कुल 40 में से भाजपा के पास 16 पार्षद थे। जबकि आठ पार्षद मेरे पास। इस तरह कांग्रेस के पास महज 14 पार्षद रहे। कांग्रेस नेता श्रवण तंवर ने पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से फोन पर बात करवाई। मैंने स्पष्ट कह दिया कि हमने कांग्रेस को हिंद महासागर में डुबा दिया। अब भाजपा में जा रहा हूं। बाद में पूर्व विधायक चौधरी आत्माराम और चौधरी विनोद कुमार भी आए। तो उनको भी वही जवाब दिया।’
पहली बार बलाडिया ने दिया ‘चेयरमैन’ का संबोधन
हनुमानगढ़ में आज भी राजकुमार तंवर को ‘चेयरमैन’ कहकर ही पुकारा जाता है। लेकिन इसकी शुरुआत की भी दिलचस्प कहानी है। तंवर ‘भटनेर पोस्ट’ को बताते हैं, ‘1994 में नगरपालिका चुनाव के दौरान चेयरमैन का पद ओबीसी के लिए आरक्षित हुआ। पुराने साथी रमेश बलाडिया ने पहली बार मुझे ‘चेयरमैन’ कहकर संबोधित किया। कहाकि ओबीसी सीट है और आप वार्ड 34 से चुनाव लड़ो। चेयरमैन बनने के लिए। फिर गुरदीप शाहपीनी, इकबाल सिंह उर्फ पप्पी कोच, नगीना बाई व देवेंद्र अग्रवाल आदि ने भरपूर साथ दिया। इस तरह बलाडिया का संबोधन अमर हो गया। आज मुझे लोग चेयरमैन के संबोधन से ही पुकारते हैं।’
सफलता का राज ‘जनता पहले, पार्टी बाद में’
शहर में आज भी उन लोगों की अच्छी खासी तादाद है जो तंवर के कार्यकाल को बेहद सफल बताते हैं। माना जाता है कि वर्ष 1994 से 1999 तक के उनके कार्यकाल में शहर की खूब तरक्की हुई। विकास हुआ। आखिर, इसका क्या राज है ? तंवर बोले-‘मैंने चेयरमैन की कुर्सी पर बैठते वक्त एक कसम खाई थी इस पद की गरिमा का हमेशा ध्यान रखूंगा। भले राजनीतिक पार्टी के माध्यम से इस पद तक पहुंचा लेकिन मेरी जिम्मेदारी शहर के प्रति है और यहां के जनता के प्रति भी। इसलिए पहले जनता, पार्टी बाद में। पूरे पांच साल तक इस संकल्प को याद रखा और निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे कार्यकाल में सत्तापक्ष या विपक्ष जैसी स्थिति नजर नहीं आई। सबने साथ मिलकर शहर के विकास के लिए काम किया। यही वजह है कि आज बीस साल बाद भी लोग याद तो करते ही हैं।’
उपलब्धियों पर संतोष
तंवर का कार्यकाल तब शुरू हुआ जब वर्षों बाद नगरपालिका के चुनाव हुए थे। विकास के हिसाब से शहर के विकास पर ब्रेक लग चुका था। सुरेशिया, भट्टा कालोनी और गांधीनगर जैसी बस्तियां समस्याओं से त्रस्त थी। राजकुमार तंवर के अनुसार, इन बस्तियों में पैदल गुजरना मुश्किल था। लोगों को पहले पट्टे दिलाया। दिन-रात खड़े होकर राशनकार्ड और पट्टे आदि बनवाने के लिए प्रेरित करता। 400-500 रुपए देकर पट्टे बनवाने को लोग तैयार नहीं होते। आज वे उसका महत्व समझते हैं। उनकी प्रोपर्टी लाखों की हो गई है। इन क्षेत्रों में बिजली, नाली और सड़क की व्यवस्था करवाई। सबसे बड़ी उपलब्धि नगीना मार्ग है। तंवर बताते हैं ‘उस वक्त नगीना बाई हमेशा एक ही रट लगातीं कि रास्ता खुलवा दो। मैंने वादा किया हुआ है। एक दिन मंत्रीजी से बात की। फिर गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी से मुलाकात की। उन्होंने जगह छोड़ने के मद में सवा लाख रुपए की डिमांड रखी। हमने डेढ़ लाख रुपए एकत्रित किए और गुरुद्वारा प्रबंधन को सौंपकर रास्ता खुलवाया। इससे गांधीनगर आने जाने वालों का रास्ता सुगम हो गया। शहर में पहली बार सड़क के डिवाइडर निर्माण का कार्य मेरे कार्यकाल में हुआ। हमारी एक उपलब्धि आप यह भी कह सकते हैं कि उस वक्त निर्माण कार्यों में हमने क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं किया।’
‘फंड लाने के लिए चपरासी बनना पड़ता है’
पूर्व पालिकाध्यक्ष राजकुमार तंवर मानते हैं कि निकाय संस्थाओं के पास धन की कमी रहती है। सरकार आर्थिक मदद नहीं करना चाहती और निकाय संस्थाओं के पास आय के सीमित और नाममात्र के स्त्रोत हैं। ऐसे में पालिकाध्यक्ष को खुद प्रयास करने पड़ते हैं। वे बताते हैं ‘जब मैं चेयरमैन था तो राज्य में भैरोसिंह शेखावत की सरकार थी। डॉ. रामप्रताप मंत्री थे। उनके प्रयासों से बजट की कभी कमी नहीं आई। वे एक बार कह देते और मैं तब तक पीछा करता जब तक काम हो नहीं जाता। यहां तक कि मंत्रियों और अफसरों के दफ्तरों के बाहर चपरासी की तरह बैठकर इंतजार करता। परिणाम यह हुआ कि बजट में कमी नहीं आई। अगर कोई यह समझे कि बजट अपने आप आ जाएगा जो यह गलतफहमी है। शहर के विकास के लिए खुद दौड़ना पड़ता है।’
मन में है कुछ मलाल भी
अपने कार्यकाल को सफल मानने के बावजूद तंवर के मन मे कुछ मलाल है। वे कहते हैं “चेयरमैन रहते भटनेर किला के विकास को लेकर कुछ न कर पाया। यह दर्द कचोटता है। शहर में सैकड़ों रेहड़ी धारक हैं, इन्हें स्थाई जगह नहीं मिल पाई। वे आज भी इधर-उधर भटकते रहते हैं।”