गोपाल झा.
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बजट के माध्यम से विपक्ष को सकते में डाल दिया है। सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने वाले बजट की औपचारिक आलोचना के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे। विपक्ष का शायद ही कोई नेता हो जो महंगाई की मार झेल रही आम जनता को एक अप्रैल से 1100 रुपए का रसोई सिलेंडर महज 500 रुपए में दिए जाने, जरूरतमंदों को राशन किट व घरेलू उपभोक्ताओं को प्रति माह 100 यूनिट बिजली माफ करने के ऐलान पर सवाल उठाने की हिमाकत करे।
मुख्यमंत्री चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत 25 लाख तक कैशलेश इलाज व परिवार को 10 लाख की दुर्घटना बीमा ऐसी घोषणा है जिस पर विपक्ष चाहकर भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं है। विधायकों ने जो मांगा, मिला, नए जिलों की घोषणा को छोड़कर।
जाहिर है, बतौर मुख्यमंत्री तीसरे कार्यकाल के इस अंतिम बजट से अशोक गहलोत को काफी उम्मीदें हैं। बड़ी उम्मीद है सरकार रिपीट होने की। लगता है, मुख्यमंत्री यहीं पर चूक कर रहे हैं। यह सच है कि सरकार का मुखिया होने के कारण वे आम जनता को ज्यादा से ज्यादा राहत देकर उनका दिल जीतने का सफल प्रयास कर रहे हैं लेकिन जब विपक्ष के तौर पर उनका वास्ता बीजेपी से हो तो फिर इतने से काम कैसे चलेगा ? कहना न होगा, इससे पूर्व के कार्यकाल में भी उन्होंने आम जनता को राहत पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन परिणाम फिसड्डी रहा। कांग्रेस महज 21 सीटों पर सिमट गई थी। आखिर, क्या है इसकी वजह ? सत्ता संघर्ष में जुटे नेताओं को इस सवाल पर गौर करना ही होगा।
कहावत है, सौ बार बोले गए ‘झूठ’ को सामने वाला सच मान लेता है। चुनाव हारने के बाद अशोक गहलोत ने स्वीकार किया था कि वर्ष 2013 के चुनाव में बीजेपी ने जनता के बीच झूठ बोलकर भ्रम फैलाया जबकि उस झूठ पर उन्होंने कोई पक्ष नहीं रखा और जनता ने उसे सच मान लिया। सवाल यह है कि क्या बीजेपी बदल गई या फिर खुद कांग्रेस ? बेशक, भाजपा का प्रचार तंत्र और अधिक मजबूत हुआ है। आईटी सेल पर पार्टी करोड़ों खर्च कर रही है। सोशल मीडिया पर उसका एकछत्र राज है। टीवी चैनलों का तो कहना ही क्या?
सरकार की नीतियों का प्रचार करना सिर्फ जनसंपर्क विभाग का दायित्व नहीं है। अमूमन, यह काम जिस मनोयोग से कार्यकर्ता या जनप्रतिनिधि कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं कर सकता। कांग्रेस की बड़ी समस्या है कि उसके पास दो साल से संगठन नहीं है। कार्यकर्ता हताश और निराश हैं। उनमें जोश भरना और एकजुट करना टेढ़ी खीर है। फिर सरकार के खिलाफ बीजेपी से अधिक माहौल तो पायलट समर्थक बना रहे हैं। खुद सचिन पायलट सरकार को कोसने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। लिहाजा, अशोक गहलोत इस वक्त तीन मोर्चे पर लड़ते दिखाई देते हैं। कांग्रेस आलाकमान, सचिन पायलट और बीजेपी। बेशक, यह आसान काम नहीं है।
सरकार रिपीट करने के लिए प्रयास करना गलत नहीं है। लेकिन संगठनात्मक ढांचे को आकार देना, उसे सक्रिय करना और आपसी कलह दूर करना कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। फिर टिकट वितरण में फूंक-फूंककर कदम उठाने से कांग्रेस बेहतर परिणाम की उम्मीद कर सकती है। जिस तरह कांग्रेस इस वक्त खेमों में बंटी है, एकजुटता की कम ही संभावना है। फिर भी राजनीति में दोस्त और दुश्मन स्थाई नहीं होते, इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। इतना ही नहीं, कार्यकर्ताओं के मन में व्याप्त निराशा और बेरुखी को खत्म करना भी बड़ी चुनौती है। बीजेपी और कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बड़ा अंतर यह है कि बीजेपी कार्यकर्ता निजी तौर पर भले पीएम मोदी-शाह की जोड़ी की आलोचना करने लगे हों, लेकिन सार्वजनिक तौर पर वे मोदी-शाह के खिलाफ कुछ नहीं सुनना चाहते। वहीं कांग्रेस कार्यकर्ता गाहे-बगाहे नेतृत्व की नीतियों पर सवाल उठाने से नहीं चूकते। ऐसे में वे बीजेपी के सामने समर्पण की मुद्रा में ही नजर आते हैं।
बीजेपी इस वक्त पीएम नरेंद्र मोदी की छाया में है, सुरक्षित है लेकिन कांग्रेस इस वक्त बुरे दौर से गुजर रही है। ऐसे में बीजेपी सामान्य कार्यकर्ताओं पर दांव खेल सकती है। यह अलग बात है अपवाद को छोड़कर वह भी ऐसा नहीं करती। दूसरे दलों से आए जनाधार वाले नेताओं को बीजेपी में इस वक्त मौज है। लेकिन कांग्रेस जिस तरह जनाधारविहीन नेताओं को जिम्मेदारी दे रही है, इससे भी पार्टी को आने वाले समय में बड़ा नुकसान हो सकता है। क्योंकि ‘कागजी’ व ‘अखबारी’ नेताओं को जनता कभी पसंद नहीं करती। जनता को वही चेहरा पसंद है जो उसके बीच का हो। ऐसे में बेहतर होगा, कांग्रेस अपनी कमियों की फेहरिस्त तैयार करे, आत्ममंथन करे और फिर उचित निर्णय ले। यही वक्त की नजाकत है और कांग्रेस के लिए जरूरी भी।