टिकटार्थियों की परेशानी, दर्द न जाने कोय!

गोपाल झा. 

कदम थक रहे हैं और आंखें भी। सांसें भी उखड़ने लगी हैं। टिकट के तिकड़मी खेल में सप्ताह भर से मशक्कत में जुटे अधिकांश नेताओं की यही दशा है। जो नेता पहले प्यार से मिलते थे, बाहों में भर लेते थे, अब मिलने से कतराने हैं, बहाने बनाने लगे हैं। वक्त-वक्त का खेल है। कद्दावर माने जाने वाले नेताओं को भी अपने से जूनियर नेताओं के सामने झुकते हुए देखा जा रहा है। सब कुछ माया है। मोह है। सत्ता की माया और कुर्सी का मोह। सत्ता का यही चरित्र है। पहले झुको और फिर झुकाए रखो। 
 बीजेपी और कांग्रेस की वजह से दूसरी पार्टियों के टिकट भी अटके हुए हैं। भले वह आम आदमी पार्टी हो या आरएलपी या फिर जजपा। इन पार्टियों के नेताओं की नजरें कांग्रेस और भाजपा के उन असंतुष्ट नेताओं पर टिकी हुई हैं। कांग्रेस और बीजेपी के असंतुष्टों में ही उन्हें अपनी पार्टी का भविष्य नजर आ रहा है। बीजेपी और कांग्रेस के सीनियर नेताओं की अपनी रणनीति है। वे नहीं चाहते कि विद्रोह करने वाले टिकटार्थियों को ज्यादा अवसर मिले ताकि वे बगावत का झंडा बुलंद न कर सकें। 
 लगता है, इस महीने तक यह क्रम जारी रहेगा। सूचियां आएंगी लेकिन मुकम्मल तरीके से नहीं। तब तक टिकट पाने और कटवाने के लिए मशक्कत जारी रहेगी। राजनीतिक दलों का दल-बदल जारी रहेगा। फिर कमान जनता के हाथों में होगी कि दल बदलुओं को मौका देती है या वैचारिक रूप से कटिबद्ध नेताओं को। बहरहाल, चुनाव की रोचकता बनी हुई है। आनंद लीजिए और दूसरों को भी लेने दीजिए।

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